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________________ 348 : प्राकृत व्याकरण व्रजे तुंबः।।४-३९२॥ अपभ्रंशे व्रजते र्धातो वुज इत्यादेशौ भवति। वुबइ। वुअप्पि। वुबेप्पिणु।। अर्थः-'घुमना, जाना, गमन करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'व्रज्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'वुब' ऐसे धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसेः-व्रजति-वुअइ-वह जाता है-वह घूमता है अथवा वह गमन करता है। व्रजित्वा-वुबेप्पि और वुप्पिणु-जाकर के, घूम करके अथवा गमन करके।।४-३९२ ।। दशेः प्रस्सः ॥४-३९३।। अपभ्रंशे दृशे र्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति।। प्रस्सदि। अर्थः-संस्कृत भाषा में 'देखना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'दृश्=पश्य' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में प्रस्स' ऐसे धातु-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-पश्यति प्रस्सदि वह देखता है।।४-३९३|| ग्रहे गुणहः॥४-३९४॥ अपभ्रंशे ग्रहे र्धातो गुण्ह इत्यादेशो भवति।। पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु।। अर्थः-संस्कृत भाषा में 'ग्रहण करना-लेना' अर्थ में उपलब्ध धातु 'ग्रह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'गृह' ऐसे धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) गृह्णति-गृण्हइ वह ग्रहण करता है-वह लेता है। (२) पठ गृहीत्वा व्रतम्=पढ गृण्हेप्पिणु व्रतु-व्रत-नियम को ग्रहण करके-अंगीकार करके-पढ़ो-अध्ययन करो।।४-३९४।। तक्ष्यादीनां छोल्लादयः॥४-३९५।। अपभ्रंशे तक्षि-प्रभृतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय आदेशा भवन्ति।। जिव तिवं तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिजन्त॥ तो जइ गोरिहे मुह-कमलि सरि सिम कावि लहन्तु॥१॥ आदि ग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः।। चूडल्लउ चुण्णी होइ सइ मुद्धि ! कवोलि निहित्तउ।। सासानल-जाल-झलक्किअउ, वाह-सलिल-संसित्तउ।। २।। अब्भड वंचिउ बे पयई पेम्मु निअत्तइ जावें।। सव्वासण-रिउ-संभवहो, कर परिअत्ता तावँ।। ३॥ हिअइ खुडुक्कइ गोरडी गयणि घुडुक्कइ मेहु।। वासा-रत्ति-पवासुअहं विसमा संकडु एहु॥४॥ अम्मि ! पओहर वज्जमा निच्चु जे संमुह थन्ति।। महु कन्तहो समरङ्गणइ गय-घड भज्जिउ जन्ति।। ५।। पुत्ते जाएं कवणु गुण, अवगुणु कवणु मुएण।। जा बप्पीकी भुंहडी चम्पिज्जइ अवरेण।। ६।। तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु वित्थारू।। तिसेहे निवारणु पलुवि नवि पर धुढुअइ असारू।। ७।। अर्थः-संस्कृत भाषा में 'छोलना-छिलके उतारना' अर्थक उपलब्ध धातु 'तक्ष के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'छोल्ले' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। यों अन्य अनेक धातु अपभ्रंश भाषा में आदेश रूप से प्राप्त For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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