________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 349 होती हुई देखी जाती है, उनकी आदेश प्राप्ति का विधान स्वयमेव समझ लेना चाहिये । वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर क्रम से इस प्रकार है:
संस्कृत : यथा तथा तीक्ष्णान् करान् लात्वा यदि शशी अतक्षिष्यत । । तदा जगति गौर्या मुख-कमलेन सद्दशतां कामपि अलप्स्यत ॥१॥
हिन्दी:-(बिना विचार किये) जैसी तैसी तीक्ष्ण-कठोर किरणों को लेकर के चन्द्रमा ( कमलमुखियों के मुख की शोभा को) छीलता रहेगा तो इस संसार में (अमुक नायिका विशेष के गौरी के मुख कमल की समानता को कहीं पर भी किसी के साथ भी नहीं प्राप्त कर सकेगा || १ |
संस्कृत : कङकणं चूर्णी - भवति स्वयं मुग्धे ! कपोले निहितम्।। श्वासानल ज्वाला-संतप्तं बाष्प - जल-संसिक्तम् ॥ २॥
हिन्दी:- हे ( सुन्दर गालों वाली) मुग्ध - नायिका ! श्वास- निश्वास लेने से उत्पन्न गर्मी अथवा अग्नि की ज्वालाओं से (झाल से) गरम हुआ और बाष्प अर्थात् भाप के (अथवा नेत्रों के आँसु रूप) जल से भीगा हुआ एवम् गाल पर रखा हुआ (तुम्हारा यह) कंकड़-चूड़ी चूर्ण चूर्ण हो जायगी टूट जायगी। गरम होकर भीगा हुआ होने से अपने आप ही तड़क कर कंकण टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा । इस गाथा में 'तापय्' धातु के स्थान पर 'झलक' धातु का प्रयोग किया गया है; जो कि देशज है ॥ १ ॥
संस्कृत : अनुगम्य द्वे पदे प्रेम निवर्तते यावत् ।।
सर्वाषन-रिपु-संभवस्य कराः परिवृत्ताः तावत् ॥ ३॥
हिन्दी:- प्रेमी के कदमों का अनुकरण करने मात्र से ही परिपूर्ण प्रेम निष्पन्न हो जाता है - प्रेम-भावनाऐं जागृत हो जाती हैं और ऐसा होने पर जो जल उष्ण प्रतीत हो रहा था और जिस चन्द्रमा की किरणें उष्णता उत्पन्न कर रही थी; वे तत्काल ही निवृत्त हो गई अर्थात् प्रेमी के मिलते ही परम शीतलता का अनुभव होने लग गया। इस गाथा में 'अनुगम्य' क्रियापद के स्थान पर देशज भाषा में उपलब्ध 'अब्भड वचिउ' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।। ३।। संस्कृत : हृदये शल्यायते गौरी, गगने गर्जति मेघः ॥
वर्षा - रात्रे प्रवासिकानां विषमं संकटमेतत् ॥ ४॥
हिन्दी:- (प्रियतमा पत्नी को छोड़ करके विदेश की यात्रा करने वाले) प्रवासी यात्रियों को वर्षा - कालीन रात्रि के समय में इस भयंकर संकट का अनुभव होता है; जबकि हृदय में तो गौरी ( का वियोग-दुःख) कांटे के समान कसकता है-दुःख देता है और आकाश में (उस दुःख को दुगुना करने वाला) मेघ अर्थात् बादल गर्जता है। इस गाथा में 'शल्यायते' संस्कृत - क्रियापद के स्थान पर देशज क्रियापद 'खुडुक्कर' का प्रयोग किया गया है और इसी प्रकार से 'गर्जति' संस्कृत धातु रूप के बदले में देशज - धातु रूप 'घुडुक्कइ' लिखा है; जो कि ध्यान देने के योग्य है ॥ ४ ॥
संस्कृत :
अम्ब! पयोधरौ वज्रमयो नित्यं यो सम्मुखो तिष्ठतः ॥ मम कान्तस्य समरङगणके गज-घटाः भङ्क्तुं यातः ।। ५ ।।
हिन्दी:- हे माता ! रण-क्षेत्र में हाथियों के समूह को विदारण करने कि लिये जाते हुए गमन करते हए - मेरे प्रियतम सम्मुख सदा ही जिन वज्रसम कठोर दोनों स्तनों की ( स्मृति ) सम्मुख रहती है; ( इस कारण से उसको कठोर वस्तु का भंजन करने का सदा ही अभ्यास है और ऐसा होने से हाथियों के समूह को विदारण करने में उन्हें कोई कठिनाई अनुभव नहीं होती है ) ।। ५ ।।
संस्कृत :
पुत्रेण जातेन को गुण, अवगुणः कः मृतेन ।।
यत् पैतृकी (बप्पीकी) भूमिः आक्राम्यते ऽपरेण ।। ६ ।।
हिन्दी:- यदि (पुत्र के रहते हुए भी) बाप-दादाओं की अर्जित भूमि शत्रु द्वारा दबाली जाती है - अधिकृत कर ली
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org