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________________ 110 : प्राकृत व्याकरण और इणमो रूपों की भी समझ लेनी चाहिये। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में 'एतद्' शब्द के तीनों लिंगों में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर इस प्रकार रूप बनते हैं : नपुंसकलिंग में:-एतद्+सि=एतद्-ए। स्त्रीलिंग में:- एतद-सि-एषा एसा। पुल्लिग में:- एतद्+सिएषः एसो। 'सव्वस्स' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है। 'वि' अव्यय की सिद्धि-संख्या १-६ में की गई है। 'एस' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। 'गई' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११५ में की गई है। सर्वेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुये 'र' के पश्चात् शेष रहे हुये 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'सव्व' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'सव्वा' में षष्टी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'सव्वाण' सिद्ध हो जाता है। 'वि' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। पार्थिवानाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पत्थिवाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'पा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'थ्' के स्थान पर 'त्' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'पत्थिव' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग ‘पत्थिवा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'पत्थिवाण सिद्ध हो जाता है।। एषा संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्रीलिग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप एस (भी) होता हैं इसमें सूत्र-संख्या ३-८५ से संपूर्ण रूप 'एषा' के स्थान पर 'एस' की (वैकल्पिक रूप से) आदेश प्राप्ति होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है। महिः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप मही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में शब्दान्त्य हस्व स्वर इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मही रूप सिद्ध हो जाता है। 'एस' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। स्वभावः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप सहाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'व्' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व् का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'सहाअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहाओ रूप सिद्ध हो जाता है। 'च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है। शशधरस्य संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप ससहरस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'शकारों के स्थान पर दोनों 'सस' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्तांग 'ससहर' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' की प्राप्ति होकर ससहरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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