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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 111 'एस' विशेषण रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-३१ में की गई है। "सिरं रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-३२ में की गई है। 'इण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है।
एषः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इणमो भी होता है। इससे सूत्र-संख्या ३-८५ से 'एष' के स्थान पर 'इणमो की आदेश प्राप्ति (वैकल्पिक रूप से) होकर इणमो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
'एअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'एसा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। 'एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है।।३-८५।।
तदश्च तः सोक्लीबे ॥३-८६।। तद एतदश्च तकारस्य सौ परे अक्लीबे सो भवति।। सो पुरिसो। सा महिला। एसो पिओ। एसा मुद्धा।। सावित्येव। ते एए धन्ना। ताओ एआओ महिलाओ ।। अक्लीब इति किम्। तं एवणं। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'तद्' और 'एतद् के पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'सि' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय परे रहने पर प्राकृत रूपान्तर में इन दोनों शब्दों में स्थित पूर्ण व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- (तद्+सि-) सः पुरुषः सो पुरिसो और (तद्+सि=) सा महिला सा महिला। (एतद्+सि=) एषः प्रियः एसो पिओ और (एतद्+सि=) एषा मुग्धा एसा मुद्धा। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि 'तद्' और 'एतद्' के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग में 'त' के स्थान पर 'स' की आदेश प्राप्ति हुई है।
प्रश्नः- 'सि' प्रत्यय परे रहने पर ही 'तद्' और 'एतद्' के 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- 'सि' प्रत्यय के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'तद्' और 'एतद्' में स्थित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' की प्राप्ति नहीं होती है; इसीलिये 'सि' प्रत्यय का उल्लेख किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- ते एते धन्याः ते एए धन्ना और ताः एताः महिलाः ताओ एआओ महिलाओ। इन उदाहरणों से विदित होता है कि 'तद्' और 'एतद्' शब्दों में 'सि' प्रत्यय के अतिरिक्त अन्य प्रत्यय परे रहे हुए हों तो इनमें स्थित 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है।
प्रश्नः- सूत्र में वर्णित-विधान में नपुंसकलिंग का निषेध क्यों किया गया है?
उत्तर:- नपुंसकलिंग में 'तद्' और 'एतद्' शब्द में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर भी प्राकृत रूपान्तर में 'त' व्यञ्जन के स्थान पर 'स' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये 'नपुंसकलिंग' का निषेध किया गया हैं। उदाहरण इस प्रकार है:- तत् एतत् वनम्=तं एअंवणं अर्थात् यह वही वन है। इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि केवल पुल्लिग और स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ही 'तद्' और 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में 'त' के स्थान पर 'सि' प्रत्यय परे रहने पर 'स' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं।
'सो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। 'पुरिसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'सा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। 'महिला' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४६ में की गई है। 'एसो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११६ में की गई है। "पिओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४२ में की गई है। 'एसा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है।
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