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________________ 112 : प्राकृत व्याकरण 'मुद्धा' रूप की सिद्धि-संख्या ३-२९ में की गई है। 'ते' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५८ में की गई है। 'एए' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है। 'घन्ना रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है। 'ताः' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'त' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्राप्तांग 'ता' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति 'ताओ' रूप सिद्ध हो जाता है। ___एताः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण है। इसका प्राकृत रूप एआओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-३२ और २-४ के निर्देश से प्राप्तांग 'एअ' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्राप्तांग 'एआ' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय का प्राप्ति होकर 'एआओ' रूप सिद्ध हो जाता है। महिलाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप महिलाओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२७ से मूल रूप 'महिला' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'महिलाओ' रूप सिद्ध हो जाता है। 'त' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में की गई है। 'एअं रूप सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। 'वणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। -३-८६।। वादसो दस्य होनोदाम् ।। ३-८७।। अदसो दकारस्य सौ परे ह आदेशो वा भवति तस्मिंश्च कृते अतः सेडोः (३-३) इत्योत्वं शेषं संस्कृतवत् (४-४४८) इत्यतिदेशात् आत् (हे २-४) इत्याप् क्लीबे स्वरान्म् सेः (३-२५) इतिमश्च न भवति।। अह पुरिसो। अह महिला। अह वणं अह मोहो पर-गुण-लहुअयाइ।। अह णे हिअएण हसइ मारुय-तणओ। असावस्मान् हसतीत्यर्थः। अह कमल-मुही। पक्षे उत्तरेण मुरादेशः। अमू पुरिसो। अमू महिला। अमुंवणं।। ___ अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अदस्' के तीनों लिगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' परे रहने पर प्राकृत रूपान्तर में प्रत्यय सि' का लोप उस समय में हो जाता है जब कि मूल शब्द 'अदम' में स्थित 'द' के स्थान पर 'ह' आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है; इस प्रकार तीनों लिंगों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में समान रूप से अदस् का प्राकृत में अह' रूप वैकल्पिक रूप से हुआ करता है। इस विधान से पुल्लिंग में सूत्र-संख्या ३-३ से प्राप्त प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति भी नहीं होती है; ४-४४८ और २-४ के निर्देश से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'अदस्' में 'आ' प्रत्यय का सद्भाव भी नहीं होता है एवं ३-२५ से नपुंसकलिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' की संयोजना भी नहीं होती है; यों तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'अदस्' का 'अह' रूप ही जानना। उदाहरण इस प्रकार हैं:- असौ पुरुषः अह पुरिसो अर्थात् वह पुरुष; असौ महिला=अह महिला अर्थात् वह स्त्री और अदः वनम् अह वणं अर्थात् वह जंगल। यों यह यह ज्ञात होता है कि 'अदस्' के तीनों लिंगों में प्रथमा के एकवचन में समान रूप से 'ओ, आ और म्' प्रत्ययों की अदर्शन-स्थिति' होकर एक ही रूप'अह' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। इस विषयक अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं :- असौ मोहः पर-गुण लध्वयाते-अह मोहो पर-गुण- लहुअयाइ-वह मोह दूसरों के गुणों को लघु कर देता है (अर्थात् मोह के कारण से अन्य गुणवान् पुरुष के गुण भी हीन प्रतीत होने लगते हैं।) असौ अस्मान् हदयेन हसति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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