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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 109 त्थे च तस्य लुक् ।। ३-८३।। एतद् स्त्थे पर चकारात् त्तो ताहे इत्येतयोश्र परयोस्तस्य लुग् भवति।। एत्थ। एत्तो। एत्ताहे।। अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' में स्थित संपूर्ण व्यञ्जन 'त' का 'त्थ' प्रत्यय और 'त्तो, त्ताहे' प्रत्यय परे रहने पर नित्यमेव लोप हो जाता है। जैसे:- एतस्मिन् एत्था एतस्मात् एत्तो और एत्ताहे। एतस्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पल्लिग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकत रूप एत्थ होता है। इसमें सत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-८३ से 'त' का लोप और ३-५९ से प्राप्तांग 'ए' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकत में 'त्थ प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'एत्थ' सिद्ध हो जाता है। एत्तो और एत्ताहे रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८२ में की गई है। ३-८३।। एरदीतो म्मौ वा।।३-८४॥ एतद एकारस्य ड्यादेशे म्मौ परे अदीतौ वा भवतः। अयम्मि। ईयम्मि। पक्षे। एअम्मि।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के प्राकृत स्थानीय प्रत्यय 'म्मि' परे रहने पर मूल शब्द 'एतद्' में स्थित 'ए' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से तथा क्रम से 'अ' और 'ई' की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एतम्मिन् अयम्मि अथवा ईयम्मि। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में एअम्मि रूप का भी सद्भाव ध्यान में रखना चाहिये। __एतस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अयम्मि, इयम्मि और एअम्मि होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुये 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुये 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, ३-८४ से आदि 'ए' के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'अ' अथवा 'ई' की प्राप्ति और ३-११ से क्रम से प्राप्तांग 'अय' और 'ईय' से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से प्रथम दोनों रूप अयम्मि और इयम्मि सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप-(एतस्मिन्-) एअम्मि में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-११ से प्राप्तांग 'एअ' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर तृतीय रूप एअम्मि भी सिद्ध हो जाता है।।३-८४॥ वैसेणमिणमो सिना।।३-८५॥ एतदः सिना सह एस इणम् इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति॥ सव्वस्स वि एस गई। सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही। एस सहाओ चिअ ससहरस्स।। एस सिरं। इण। इणमो। पक्षे। एअं एसो। एसो।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' की संयोजना होने पर मूल शब्द 'एतद्' और प्रत्यय 'सि' दोनों के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से (एवं क्रम से) 'एस, इणं और इणमो' इन तीन रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। एतद्+सि- (प्राकृत में) एस अथवा इणं अथवा इणमो; इस प्रकार इन तीन रूपों की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- सर्वस्यापि एषा गति-सव्वस्स वि एस गई अर्थात् सभी की यह गति है। सर्वेषामपि पार्थिवानाम एषा मही -सव्वाण वि पत्थिवाण एस मही अर्थात् सभी औदारिक शरीर धारी जीवों की यह पृथ्वी है। एषः एव स्वभावो शशधरस्य-एस सहाओ चिअ ससहरस्स अर्थात् चन्द्रमा का यही स्वभाव है। एतद् शिरः एस सिरं अर्थात् यह शिर है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि प्राकृत में 'एस' प्रथमा एकवचनान्त सर्वनाम रूप तीनों लिगों में समान रूप से एवं वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त हुआ करता है। यही स्थित 'एतद्+सिं-इणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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