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________________ 108 : प्राकृत व्याकरण ___'एतस्य' संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप से' और 'एअस्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-८१ से संपूर्ण रूप 'एतस्य' के स्थान पर प्राकृत में 'सेरूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'से सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (एतस्य=) एअस्स में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप ३-१० से प्राप्तांग 'एअ' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस् अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रित्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'एअस्स' की सिद्धि हो जाती है। अहितम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अहिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप अहिअं सिद्ध हो जाता है। ___ एतेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सिं' और 'एएसिं' तथा 'एआण' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-८१ से संपूर्ण रूप 'एतेषाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'सिं' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'सिं' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'एएसिं' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है। तृतीय रूप 'एआण' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६१ में की गई है। 'गुणा' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। "सील' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।।३-८१।। वैतदो ङसेस्तो त्ताहे ।। ३-८२।। एतदः परस्य उसेः स्थाने तो ताहे इत्येतावादेशौ वा भवतः।। एत्तो। एत्ताहे। पक्षे। एआओ। एआउ। एआहि। एआहिन्तो। एआ।। अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'एतद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्-िअस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से (एवं क्रम से) 'त्तो और ताहे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- एतस्मात् एत्तो और एत्ताहे। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में निम्नोक्त पांच रूपों का सद्भाव और जाननाः- (एतस्मात्=) एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ अर्थात् इससे। ___एतस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'एत्तो, एत्ताहे, एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-११ मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-८३ से 'त' का लोप और ३-८२ से प्राप्तांग 'ए' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'त्तो और त्ताहे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम दोनों रूप-'एत्तो और एत्ताहे सिद्ध हो जाते हैं। शेष पांच रूपों (एतस्मात्-) 'एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'एअ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे पंचमी-विभक्ति के एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'एआ' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि-अस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ, हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से पांचों रूप एआओ, एआउ, एआहि, एआहिन्तो और एआ' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-८२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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