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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 65 अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्तांग 'राजा' में स्थित 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्राप्तांग 'राया' में अन्त्य 'आ' स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप-हे राया! और हे राय! सिद्ध हो जाते हैं। __ हे राजन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन रूप है। इसका शौरसेनी रूप हे रायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के कारण से शौरसेनी में प्राप्तांग ‘रायन्' के अन्त्य 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर शौरसेनी रूप हे राय! सिद्ध हो जाता है। __ हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसका रौरसेनी रूप हे अप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति। २-८९ से 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति ४-२६४ से संबोधन के एकवचन में शौरसेनी में प्राप्तांग 'अप्पन' में स्थित अन्त्य 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर हे अप्प! रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अप्पा होता है। इसमें अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या १-११ से हलन्त 'न्' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में वैकल्पिक रूप से अभाव होकर प्राकृत-संबोधनात्मक एकवचन रूप हे अप्प! सिद्ध हो जाता है। ३-४९||
जस्-शस् ङसि-ङसां णो॥३-५०॥ राजन् शब्दात् परेषामेषां णो इत्यादेशो वा भवति॥ जस्। रायाणो चिट्ठन्ति। पक्षे। राया।। शस्। रायाणो पेच्छ। पक्षे। राया। राए।। उसि। राइणो रण्णो आगओ। पक्षे। रायाओ। रायाउ। रायाहि। रायाहिन्तो। राय।। उस्। राइणो रण्णो धणं। पक्षे। रायस्स। ____ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'राजन्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर; द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर; पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थान पर
और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- 'जस्' प्रत्यय का उदाहरणः- राजानः तिष्ठन्ति-रायाणो अथवा राया चिटन्ति। 'शस्' प्रत्यय का उदाहरणःराज्ञः पश्य-रायाणो अथवा राया अथवा राए पेच्छः अर्थात् राजाओं को देखो। उसि' प्रत्यय का उदाहरण :- राज्ञः आगतः राइणो रण्णो-आगओ; पक्षान्तर में पांच रूप होते हैं:- रायाओ; रायाउ; रायाहि; रायाहिन्तो और राया आगओ अर्थात् राजा से आया हुआ है। 'डस्' प्रत्यय का उदाहरणः- राज्ञः धनम-राइणो-रण्णो अथवा रायस्स धणं अर्थात् राजा का धन। यों उपर्युक्त उदाहरणों से विदित होता है कि 'जस्' 'शस्' 'ङसि और ङस्' प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुई है।
राजानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप रायाणो और राया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त 'न्' का लोप; ३-१२ से प्राप्तांग 'राय' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन का प्रत्यय रहा हुआ होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रायाणो सिद्ध हो.जाता है।
द्वितीय रूप-(राजानः=) राया में राय' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से उपर्युक्त रीति अनुसार ही अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति एवं प्राप्तांग 'राया' में ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' की प्राकृत में प्राप्ति और लोप-स्थिति प्राप्त होकर द्वितीय रूप राया भी सिद्ध हो जाता है।
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