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________________ 74 : प्राकृत व्याकरण युवन =जुवाण तदनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन का उदाहरणः युवा =जुवाणो इत्यादि। समास अवस्था में विभक्ति (बोधक) प्रत्ययों का लोप हो जाता है; तदनुसार इसका उदाहरण इस प्रकार है:- युवा जनः जुवाण-जणो। वैकल्पिक पक्ष होने से युवन् शब्द के प्रथमा विभक्ति एकवचन में सूत्र-संख्या ३-५६ के विधान से 'जुआ रूप भी होता है। ब्रह्मन् शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र संख्या ३-४६ और ३-४९ के विधान से क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से (ब्रह्मा) बह्माणो अथवा बह्मा रूप होते हैं। संस्कृत शब्द 'अध्वन्' उक्षन्, 'ग्रावन्' पूषन्, तक्षन्, मूर्धन्, और 'श्वन्' इत्यादि पुल्लिंग होते हुए 'अन्' अन्त वाले हैं, तद्नुसार इन शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-५६ और ३-४९ के विधान से क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दो दो रूप निम्न प्रकार से होते हैं : अध्वा अद्धाणो और अद्धा। उक्षा उच्छाणो और उच्छा। ग्रावा-गावाणो और गावा। पूषा-पूसाणो और पूसा। तक्षा तक्खाणो और तक्खा। मूर्धा-मुद्धाणो और मुद्धा। श्वा-साणो और सा। शेष विभक्तियों के रूपों की स्थिति 'आत्मा अप्पाण के समान जान लेनी चाहिये। इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चित हुआ कि 'अन्' अन्त वाले पुल्लिग शब्दों के अन्तिम अवयव 'अन्' के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति होकर ये शब्द अकारान्त हो जाते हैं और इनकी विभक्ति (बोधक) कार्य की प्रवृत्ति 'जिण' अथवा 'वच्छ' अथवा 'अप्पाण' के अनुसार होती है। उपर्युक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये दो उदाहरण और दिये जाते है। सुकर्मणः पश्य-सुकम्माणं पेच्छ अर्थात् अच्छे कार्यों को देखो। इस उदाहरण में 'सुकर्मन्' शब्द 'अन्' अन्त वाला है और इसके 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति करके प्राकृत रूपान्तर 'सुकम्माण' रूप का निर्माण करके द्वितीया विभक्ति बहुवचन में 'वच्छे' के समान सूत्र-संख्या ३-४ और ३-१४ के विधान से 'सुकम्माणे' रूप का निर्धारण किया गया है, जो कि स्पष्टतः अकारांत स्थित का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है: पश्यति कथं स सुकर्मणः-निएइ कह सो सुकम्माणे अर्थात् वह अच्छे कार्यों को किस प्रकार देखता है? इस उदाहरण में भी प्रथम उदाहरण के समान ही 'सुकर्मन् शब्द की स्थिति को द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त शब्द की स्थिति के समान ही समझ लेना चाहिये। प्रश्नः- मूल सूत्रों में वर्ष प्रथम 'पुसि' अर्थात् 'पुल्लिंग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तरः- 'अन्' अन्त वाले शब्द पुल्लिंग भी होते हैं और नपुंसकलिंग भी होते हैं; तदनुसार इस 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में केवल पुल्लिंग शब्दों में ही 'आण' आदेश प्राप्ति होती है; नपुंसकलिंग वाले शब्द चाहे 'अन्' अन्त वाले भले ही हों; किन्तु उनमें 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; इस विशेष तात्पर्य को बतलाने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये ही मूल सूत्र में सर्वप्रथम 'पुसि' अर्थात् 'पुल्लिंग में ऐसा शब्दोल्लेख करना पड़ा है। नपुंसकलिंगात्मक उदाहरण इस प्रकार हैं:- जैसे शर्मन् शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत रूप 'शर्म का प्राकृत रूपान्तर 'सम्म' होता है। तदनुसार यह प्रतिभासित होता है कि संस्कृत रूप 'शर्म का प्राकृत-रूपान्तर 'सम्माणो' नहीं होता है। अतएव 'पुसि शब्द का उल्लेख करना सर्वथा न्यायोचित एवं प्रसंगोचित है। आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से आदि 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म्' के स्थान पर 'प्' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प्' की प्राप्ति; ३-५६ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अव्यय के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) 'आण' आदेश की प्राप्ति; यो 'आत्मन् के प्राकृत रूपान्तर में 'अप्पाण' अंग की प्राप्ति होकर तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अप्पाणो' रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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