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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 75 आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे प्रथम बहुवचन-बोधक प्रत्यय की स्थिति होने से 'आ' की प्राप्ति एवं ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर-अप्पाणा रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मानम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है इसका प्राकृत रूप अप्पाणं होता है। इसमें आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'अमम्' के समान ही प्राकृत में भी 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणे होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे द्वितीया-बहुवचन-प्रत्यय की स्थिति होने से 'ए' की प्राप्ति एवं ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर अप्पाणे रूप सिद्ध हो जाता है। • आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेण होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण'
अंग की प्राप्ति-उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' को आगे तृतीया-एकवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेण रूप सिद्ध हो जाता है। - आत्मभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेहि होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्याणेहि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणाओ होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी-एकवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय ङसि=अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाओ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणासुन्तो होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपयुक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१३ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी बहुवचन-बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-९ से पञ्चमी-विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणासुन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणस्स होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत 'उस अस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचनरूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणाण होता है। इसमें आत्मन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग-'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे षष्ठी विभक्ति बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाण रूप सिद्ध हो जाता है।
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