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76 : प्राकृत व्याकरण
आत्मनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत अप्पाणम्मि होता है। इसमें आत्मन-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणेसु होता है। इसमें आत्मन्-अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पाण' में स्थित अन्त्य 'ट' के आगे सप्तमी-विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्म-कतम संस्कत-(आत्मना कतम का समास-अवस्था प्राप्त) विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाण-कयं होता है। इससे 'अप्पाण' अवयव रूप अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार और 'कयं रूप उत्तरार्ध अवयव की साधनिका का सूत्र-संख्या १-१२६ के अनुसार प्राप्त होकर अप्पाण-कयं रूप सिद्ध हो जाता है। __ आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप अप्पा और अप्पो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'अप्पा' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५१ में की गई है। द्वितीय रूप-'अप्पो' में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन् में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन'न्' का लोप; ३-५१ से'त्म' अवयव के स्थान पर 'प' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में (प्राप्त रूप) अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्राप्त 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पो सिद्ध हो जाता है।
हे आत्मन्! संस्कृत संबोधनात्मक एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे अप्पा! और हे अप्पा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' आदेश की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; और ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) संबोधन के एकवचन में-संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हे अप्पा! सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-हे अप्प! की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-४९में की गई है।
आत्मानः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणो होता है। इसमें 'आत्मन्-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्प में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे प्रथमा बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से-)प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'आत्मन् से अप्पा' में संस्कृत प्रत्यय 'जस् के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणो रूप सिद्ध हो जाता है। "चिट्ठन्ति' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२० में की गई है।
आत्मनः संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणो होता है। इसमें 'अप्पा' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'अप्पा' में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणो रूप सिद्ध हो जाता है।
"पेच्छ' क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई।
आत्मना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पणा होता है। इसमें 'आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५१ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पणा रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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