________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 77 आत्मभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पेहिं होता है। इसमें आत्मन् अप्प अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे तृतीया-बहुवचन- (बोधक-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिंप्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप अप्पाणों, अप्पाओ, अपाउ, अप्पाहि अप्पाहिन्तो और अप्पा होते हैं। इनमें 'अप्प' अंक की प्राप्ति उपरोक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात सत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांक 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी एकवचन (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; और ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग 'अप्पा' के प्रथम रूप में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'अप्पाणो' सिद्ध हो जाता है।
शेष पाँच रूपों में प्राप्तांग 'अप्पा' में सूत्र-संख्या ३-८ से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उसि-अस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से दो-ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और (प्रत्यय) लुक् प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से शेष पाँच रूप अप्पाओ, अप्पाउ, अप्पाहि, अप्पाहिन्तो और अप्पा सिद्ध हो जाते हैं। ___ आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पा-सुन्तो होता है। इसमें आत्मन् अप्प'
अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१३ से प्राप्तांग के 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे पंचमी-बहुवचन-(बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-९ से प्राप्तांग 'अप्पा' में पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस् के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पासुन्तो रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मनः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पणा होता है। इसमें 'आत्मन-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-५० से (तथा ३-५६ के निर्देश से) षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में णो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है। 'धण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
आत्मानाम् संस्कृत षष्ठ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणं होता है। इसमें आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी-बहुवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'अप्पा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; एवं १-२७ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर अप्पाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आत्मनि संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पे होता है। इसमें आत्मन्-अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-११ से प्राप्तांग 'अप्प' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की (आदेश-) प्राप्ति; 'डे' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त 'अप्प' में पूर्वोक्त 'डे=ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पे रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पेसु होता है। इसमें 'आत्मन् अप्प' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्प' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे सप्तमी-बहुवचन (बोधक-प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पेसु रूप सिद्ध हो जाता है।
राजा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप रायाणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन्' में स्थित 'ज् व्यञ्जन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org