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360 : प्राकृत व्याकरण
___ अर्थः-संस्कृत-भाषा में पाये जाने वाले विशेषण रूप 'परस्पर' में स्थित आदि 'पकार' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अकार' की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- परस्परस्य अवरोप्परहु आपस का।। गाथा का रूपान्तर संस्कृत भाषा में और हिन्दी भाषा में क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : ते मोगला;, हारिताः ये परिविष्टाः तेषाम्।।
परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीड़ितः येषाम्॥१॥ हिन्दी:-परस्पर में युद्ध करने वाले जिन मुगलों का स्वामी पीड़ित था-दुःखी था; और इसलिये उनमें से जो बच गये थे, वे मुगल (म्लेच्छ जाति के सैनिक) हरा दिये गये-उन्हें पराजित कर दिया गया। इस गाथा में 'परस्परं' के स्थान पर 'अवरोप्परू' पद का उपयोग करते हुए आदि 'पकार' के स्थान पर 'अकार' की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।॥४-४०९।।
कादि-स्थैदोतोरूच्चार-लाघवम्॥४-४१०॥ अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोः एओ इत्येतयोरूच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति।। सुधैं चिन्तिज्जइ माणु।। (४-३९६)।। तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लह हों (४-३३८)।।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा के पदों में 'क-ख-ग' आदि सभी व्यञ्जनों में अवस्थित 'एकार' स्वर के स्थान पर और 'ओकार' स्वर के स्थान पर हस्व 'एकार' के रूप में और ह्रस्व 'ओकार' के रूप में प्रायः उच्चारण किया जाता है। जैसे:- सुखेन चिन्त्येते मानः-सुधैं चिन्तिज्जइ माणु-सुख से सम्मान विचारा जाता है। इस उदाहरण में 'सुधैं' पद के रूप में अवस्थित 'एकार' स्वर की स्थिति हस्व रूप से प्रदर्शित की गई है। हस्व 'ओ' का उदाहरण यों है:
(१) तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य-तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लह हाँ कलियुग में उस दुर्लभ का मैं यहाँ पर 'दुल्लह हाँ पद में रहे हुए 'ओकार' स्वर की स्थिति हस्व रूप से समझाई गई है। (२) गुरूजनाय-गुरू जणहाँ-गुरू-जन के लिये।।४- ४१०।।
पदान्ते उं-हुं-हिं-हंकाराणाम्।।४-४११।। अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां उं हुं हिं हं इत्येतेशां उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति।। अन्नु जु तुच्छउं तहँ धणहे।। बलि किज्जउँ सुअणस्सु।। दइउ घडावइ वणि तरूहुं।। तरूहुँ वि वक्कलु। खग्ग-विसाहिउ जहिं लहहुँ।। तणहँ तइज्जी भङ्गि नवि।।
__ अर्थः-अपभ्रंश भाषा के पदों के अन्त में यदि 'उ, हुं, हिं, ह' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाये . तो इनका उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:
(१) अन्यद् यत्तच्छं तस्याः धन्यायाः अन्नु जु तुच्छउँ तहँ धणहे-उस सौभाग्यशालिनी नायिका के दूसरे भी जो
(अङ्ग) छोटे हैं।। इस चरण में 'तुच्छउँ' को तुच्छउँ लिखकर इस 'उ' को हस्व रूप से 'उँ' ऐसा प्रदर्शित किया है। (२) बलिं करोमि सुजनस्य-बलि किज्जउँ सुअणस्सु-सज्जन पुरूष के लिये मैं बलिदान करता हूँ। इस गाथांश
में 'किज्जउं' के स्थान पर 'किज्जउँ लिखकर 'ॐ की स्थिति हस्व रूप से समझाई है। (३) देवः घटयति वने तरूणां-दइउ घडावइ वणि तरूहुं-विधाता-(ब्रह्मा) जंगल में वृक्षों पर बनाता है। इस गाथा
भाग में 'तरूहुँ' पद में 'हुँ' की स्थिति को 'प्रायः' इस उल्लेख के अनुसार हस्व के रूप से प्रदर्शित नहीं
की गई है। (४) तरूभ्यः अपि वल्कलं-तरूहुँ वि वक्कलु-वृक्षों से भी छाल (रूप वस्त्र) इन पदों में रहे हुए 'तरूहुँ' में 'हूं'
को 'हु' लिख कर उच्चारण की लघुता दिखलाई है।
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