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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 359 की तो बात ही क्या है ? सज्जन पुरूष भी बाधा देने लग जाता है। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जामहिं' लिखा है और 'तावत्' की जगह पर 'तामहिं।।' बतलाया है। यों क्रम से 'जाम, जाउं और जामाहिं' तथा 'ताम, ताउं और तामहिं' अव्यय पदों की स्थिति समझाई है।।४ - ४०६।। वा यत्तदोतोर्डेवडः।।४-४०७।। अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयो वित्तावतो कारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशौ वा भवति।। जेवडु अन्तरू रावण-रामहं, तेवडु अन्तरू पट्टण-गामह।। पक्षे। जेत्तुलो। तेत्तुलो।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'यद्' और तद्' सर्वनामों में जब परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु=अत्' की प्राप्ति होकर 'जितना' अर्थ में यावत्' शब्द बनता है तथा 'इतना' अर्थ में तावत्' शब्द बनता है तब इन ‘यावत् और 'तावत्' शब्दों में रहे हुए अन्त्य अव्यय 'वत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित' पूर्वक 'एवड' अवयव रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि 'यावत् और तावत्' शब्दों में 'वत् अवयव के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्द-भाग 'या' और 'ता' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' का भी लोप होकर इन हलन्त भाग 'य् तथा त' में आदेश प्राप्त 'एवड' भाग की संधि होकर क्रम से इनका रूप 'जेवड और तेवड' बन जाता है। जैसे:- यावत्-जेवड-जितना। तावत्-तेवड-उतना।। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४ - ४३५ से 'यावत् और तावत्' में डेत्तुल-एत्तुल प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसी अर्थ में द्वितीय रूप 'जेत्तुल और तेत्तुल' भी सिद्ध हो जाते है।। जैसे:-यावत्-जेत्तुलो जितना और तावत् तेत्तुलो उतना।। वृत्ति में दिया गया उदाहरण इस प्रकार से है:- यावद् अन्तरं रावण रामयोः तावद् अन्तरं पट्टण ग्रामयोः जेवडु अन्तरू रावण-रामह, तेवडु अन्तरू पट्टण-गामहं जितना अन्तर रावण और राम में है उतना अन्तर ग्राम और नगर में है।।४ - ४०७।। वेदं-किमोर्यादेः॥४-४०८।। अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरियत् कियतो र्यकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्योदेशौ वा भवति।। एवडु अन्तरू। केवडु अन्तरू।। पक्षे। एत्तुलो। केत्तुलो।। अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'इदम् और किम्' सर्वनामों में परिमाण-वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' की प्राप्ति होकर 'इतना और कितना' अर्थ में क्रम से 'इयत् और कियत्' पदों का निर्माण होता है; इन बने हुए 'इयत् और कियत्' पदों के अन्त्य अवयव रूप 'यत्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'डित् पूर्वक 'एयड' अवयव रूप की आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का रहस्य यह है कि 'इयत् और कियत्' पदों में से अन्त्य अवयव रूप 'यत्' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'इ और कि' में स्थित 'इ' स्वर का भी लोप होकर आदेश प्राप्त 'एवड' शब्दांश की संधि होकर क्रम से ('इयत्' के स्थान पर) एवड' की और ('कियत्' के स्थान पर) 'केवड की आदेश-प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- इयत् अन्तर एवडु अन्तरू-इतना फके-इतना भेद। कियत् अन्तरं केवडु अन्तरू कितना फर्क ? कितना भेद ? वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ४-४३५ से 'इयत्' के स्थान पर 'एत्तुल' की प्राप्ति होगी और 'कियत्' के स्थान पर 'केत्तुल' रूप भी होगा। इयत् कियत सुखं एत्तलु केत्तुलु सुहं इतना कितना सुख।।४-४०८।। परस्परस्यादिरः॥४-४०९।। अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति।। ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं।। अवरोप्परू जोअन्ताहं सामिउ गज्जिउ जाह।।१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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