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________________ 358 : प्राकृत व्याकरण अवस्थित अन्त्य स्वर 'उ' और 'अ' का भी लोप होकर तत्पश्चात् आदेश-रूप से प्राप्त होने वाले अवयव रूप 'एत्थु' की उन शेषांश अक्षरों के साथ संधि हो जाती है। जैसे:-कुत्र-केत्थु कहाँ पर-कहीं पर? और अत्र-यहाँ पर अथवा इसमें।। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:(१) कुत्रापि लात्वा शिक्षाम् केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु-कहीं पर भी शिक्षा को ग्रहण करके। यहाँ पर 'कुत्र' के स्थान पर 'केत्थु' का प्रयोग है। (२) यत्रापि तत्रापि अत्र जगति-जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि-जहाँ पर-वहाँ पर-यहाँ पर-इस जगत् में।। इस चरण में 'अत्र' के स्थान पर 'एत्थु' अव्यय-रूप का प्रयोग प्रदर्शित है।।४ - ४०५।। यावत्तावतोर्वादेर्मउंमहि।।४-४०६॥ अपभ्रंशे यावत्तावदित्यव्यययो र्वकारादेरवयवस्य म उं महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति।। जाम न निवडइ कुम्भ-यडि-सीह-चवेड-चडक्क।। ताम समत्तहं मयगलहं पइ-पइ वज्जइ ढक्क।।१।। तिलहं तिलतणु ताउं पर जाउं न नेह गलन्ति।। नेहि पण?इ तेज्जि तिल तिल फिट्ठ वि खल होन्ति।। २।। जामहिं विसमी कज्ज-गई जीवहं मज्झे एइ।। तामहिं अच्छउ इयरू जणु सु-अणुवि अन्तरू देइ।। ३।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'यावत् और तावत् अव्ययों में अवस्थित अन्त्य अवयव 'वत्के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'म, उं, और महिं' ऐसे तीन तीन आदेश क्रम से होते है।। जैसे:- यावत्-जाम अथवा जाउं अथवा जामहि-जब तक, जितना। तावत्-ताम अथवा ताउं अथवा तामहि तब तक, उतना।। सूत्र-संख्या ४-३९७ से 'जाम और ताम' में अवस्थित 'मकार' के स्थान पर अनुनासिक सहित 'वकार' अर्थात् 'वै की आदेश प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होने से 'जावँ और ताव रूपों की प्राप्ति भी होगी। उक्त अव्यय रूपों की स्थिति को स्पष्ट करने के लिये जो गाथाएँ दी गई हैं; उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यावत् न निपतति कुम्भतटे, सिंह-चपेटा-चटात्कारः।। तावत् समस्तानां मद कलानां (गजाना) पदे पदे वाद्यते ढक्का।।१।। अर्थः-जब तक सिंह के पजे की चपेटों का चटात्कार याने थाप (हाथियों के) गण्ड-स्थल पर अर्थात् गर्दन-तट पर नहीं पड़ती है; तभी तक मदोन्मत्त सभी हाथियों के डग-डग पर (पद-पद पर ऐसी ध्वनि उठती है कि मानों) डमरू बाजा बज रहा हो। इस गाथा में 'यावत्' के स्थान पर 'जाम' का प्रयोग किया गया है और 'तावत्' के स्थान पर 'ताम' अव्यय पदों को स्थान दिया गया है।।१।। संस्कृत : तिलानां तिलत्वं तावत् परं, यावत् न स्नेहाः गलन्ति।। स्नेहे प्रनष्टे ते एव तिलाः तिलाः भ्रष्ट्वा खलाः भवन्ति।। २।। हिन्दी:-तिलों का तिलपना तभी तक है, जब तक कि तेल नहीं निकलता है। तेल के निकल जाने पर वे ही तिल तिलपने से भ्रष्ट होकर (पतित होकर) खल रूप कहलाने लग जाते है।। इस गाथा में 'यावत् और तावत्' के स्थान पर क्रम से 'जाउं और ताउं रूपों का प्रयोग समझाया गया है।। २।। संस्कृत : यावद् विषमा कार्यगतिः, जीवाना। मध्ये आयाति।। तावद् आस्तामितरः जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति।। ३।। हिन्दी:-जब मानव-जीवों के सामने कठोर अथवा विपरीत कार्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है; तब साधारण आदमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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