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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 61 · नमः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप नमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३७ के विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश की प्राप्ति; तत्पश्चात् डो' में 'ड्' इत्संज्ञक होने से मूल अव्यय 'नम' में स्थित अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं तत्पश्चात् प्राप्त हलन्त अंग 'नम्' में पूर्वोक्त 'ओ' आदेश प्राप्ति संधि-संयोजना होकर प्राकृत अव्यय रूप नमो सिद्ध हो जाता है।
मातृभ्यः संस्कृत चतुर्थ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माअराण होता है। इसमें 'माअरा' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'माअरा' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योगदान एवं तदनुसार ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माअराण रूप सिद्ध हो जाता है। ___मातृभ्यः संस्कृत चतुर्थ्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माईण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १-१३५ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति; ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का योगदान; ३-१२ से प्राप्तांग 'माइ' की प्राप्ति और अन्त में ३-६ से षष्ठी-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माईण रूप सिद्ध हो जाता है। ___मात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप माऊए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ के स्थान पर प्राप्तांग 'माउ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति कराते हुए 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माऊए रूप सिद्ध हो जाता है।
समन्वितम् संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप समन्नि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे 'न्' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर समन्निअंरूप सिद्ध हो जाता है। 'वन्दे' (क्रियापद) रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है।
मातृदेवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माइ-देवो होता है इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'डो-ओ' की प्राप्ति होकर माइ-देवो रूप सिद्ध हो जाता है।
मातृ-गण : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माई-गणो होता है। इसमें माइ-देवो' में प्रयुक्त सूत्रों से साघनिका की प्राप्ति होकर माइ-गणो रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४६।।
नाम्न्यरः ॥३-४७॥ ऋदन्तस्य नाम्नि संज्ञायां स्यादौ परे अर इत्यन्तादेशो भवति। पिअरा। पिअरं। पिअरे। पिअरेण। पिअरेहि जामायरा। जामाय। जामायरे। जामायरेण। जामायरेहि। भायरा। भायरं। भायरे। भायरेण। भायरेहि।
अर्थ- नाम-बोधक ऋकारान्त संज्ञाओं में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर, आगे विभक्तिबोधक 'सि' 'अम्' आदि प्रत्ययों के रहने पर 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है। और इस प्रकार ये संस्कत ऋकारान्त संज्ञा-शब्द प्राकत रूपान्तर में 'अर-आदेश प्राप्ति होने से अकारान्त हो जाते हैं, एवं तत्पश्चात् इनकी विभक्ति-बोधक-रूपावलि जिण आदि अकारान्त शब्दों के अनुसार बनती है। जैसे:- पितरः-पिअरा; पितरम्-पिअरं; पितृन् =पिअरे; पित्रा-पिअरेण और पितृभि-पिअरेहि; इत्यादि। जामातरः जामायरा; जामातरम् जामायारं; जामतृन्-जामायरे; जामात्रा-जामायरेण और जामातृभिः=जामायरेहिं
इत्यादि। भ्रातराः भायरा, भातरम् भायरं, भ्रातृन्=भायरे; भ्रात्रा-भायरेण और भ्रातृभिः=भायरेहिं; इत्यादि। Jain Education International
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