________________
60 : प्राकृत व्याकरण 'ऋ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-४४ के अनुसार वैकल्पिक रूप से 'उ' आदेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है; अन्यत्र
भी समझ लेना चाहिये। ___ प्रश्नः- सूत्र की वृत्ति में ऐसा क्यों कहा गया है कि- 'सि' 'अम्' आदि विभक्ति-बोधक प्रत्ययों के आगे रहने पर ही 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' अथवा 'अरा' आदेश की प्राप्ति होती है। ___ उत्तरः- विभक्ति-बोधक प्रत्ययों से रहित होता हुआ समास-अवस्था में गौण रूप से रहा हुआ हो तो 'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' स्थान पर 'आ' अथवा 'अरा' आदेश प्राप्ति नहीं होगी, किन्तु सूत्र-संख्या १-१३५ के अनुसार इस अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'इ' आदेश की प्राप्ति होगी; ऐसा सिद्धान्त प्रदर्शित करने के लिये ही सूत्र की वृत्ति में 'सि' अम्' आदि प्रत्ययों के आगे रहने की आवश्यकता का उल्लेख करना सर्वथा उचित है। जैसे:- मातृदेवः माइदेवो और मातृ-गणः माइ-गणो; इत्यादि। इन उदाहरणों में उक्त विधानानुसार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' आदेश की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
माता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप माआ और माअरा। होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ'आदेश की प्राप्ति; ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' की प्राकृत में प्राप्त अंग 'माआ' में भी प्राप्ति एवं १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स्' का हलन्त होने से लोप होकर माआ रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (माता-) माअरा में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त्'के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूपवत् होकर द्वितीय रूप माअरा भी सिद्ध हो जाता है। ___मातरः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप माआउ, माआओ, माअराउ, और माअराओ होते
हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप; हुए _ 'त्' के पश्चात् शेष रहे 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में आकारान्त
स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर माआउ और माआओ रूप सिद्ध हो जाते हैं।
तृतीय और चतुर्थ रूप-(मातरः=) माअराउ और माअराओ में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द मातृ' में स्थित 'त्' का लोप; ३-४६ से लोप हुए 'त् के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथम दो रूपों के समान ही 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर माअराउ और माअराओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ____ मातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूपं माअं और माअरं होते हैं। इनमें 'माआ' और 'माअरा' अंगों की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-३६ से 'अन्त में द्वितीया विभक्ति के एकवचन का प्रत्यय आने से' मूल-अंग 'माआ तथा माअरा' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'आ के स्थान पर हस्व स्वर' 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप माअं और माअरं रूप सिद्ध हो जाते हैं।
मातुः संस्कृत षष्ठ्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'माआए होता है। इसमें माआ' अंग की साधनिका उपर्युक्त विधि अनुसार, पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में आकारांत स्त्रीलिंग संस्कृत प्रत्यय 'ङस्-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माआए' रूप सिद्ध हो जाता है।
कुक्षेः संस्कृत पञ्चम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप कुच्छीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'कुक्षि' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' का प्राप्ति और ३-२९ से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में इकारान्त के स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि=अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुच्छीए रूप सिद्ध हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org