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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 59 भर्तृन् संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारे होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-१४ से प्राप्तांग 'भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' का प्राकृत में लोप होकर भत्तारे रूप सिद्ध हो जाता है। । भ; संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तारेण होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या-३-१४ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारेण रूप सिद्ध हो जाता है।
भर्तृभिः संस्कृत तृतीयान्त बहुवचन का रूप है इसका प्राकृत-रूप भत्तारेहिं होता है। इसमें भत्तार' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांग भत्तार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अके स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भत्तारेहिं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ भर्तृ-विहितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तार-विहिअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'त्' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३-४५ से 'ऋ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त् का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भत्तारविहिअंरूप सिद्ध हो जाता है। ॥३-४५।।
आ अरा मातः॥३-४६॥ मातृ संबन्धिन ऋतः स्यादौ परे आ अरा इत्यादेशो भवतः माआ।। माअरा। माआउ। माआओ। माअराउ। माअराओ। माओ माअरं इत्यादि।। बाहुलकाज्जनन्यर्थस्य आ देवतार्थस्य तु अरा इत्यादेशः। माआए कुच्छीए। नमो माअराण।। मातुरिद्वा (१-१३५) इतीत्त्वे माईण इति भवति।। ऋतामुद (३-४४) इत्यादिना उत्वे तु माउए समन्नि अं वन्दे इति। स्यादावित्येव। माइ देवो। माइ-गणो।। ___ अर्थः-'मातृ' शब्द में स्थित 'ऋ' के स्थान पर आगे विभक्तिबोधक 'सि', 'अम्' आदि प्रत्ययों के रहने पर 'आ'
और 'अरा' ऐसे दो आदेशों की प्राप्ति यथाक्रम से होती है। जैसे :- माता=माआ अथवा माअरा। मातरः-माआउ और माआओ अथवा माअराउ अथवा माअराओ-माताऐं। मातरम् माअं अथवा माअरं अर्थात् माता को। 'मातृ' शब्द दो अर्थों में मुख्यतः व्यवहत होता है:-(१) जननी अर्थ में और (२) देवता के स्त्रीलिंग रूप देवी अर्थ में; तदनुसार जहां 'मातृ' शब्द का अर्थ 'जननी' होगा वहां पर प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति होगी, एवं जहां 'मातृ' शब्द का अर्थ 'देवी' होगा; वहां पर प्राकृत रूपान्तर में अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अरा' आदेश की प्राप्ति होगी। जैसे:- मातुः कुक्षेः माआए कुच्छीए अर्थात् माता के पेट से। नमो मातृभ्यः नमो माअराण अर्थात् देवी रूप माताओं के लिये नमस्कार हो। प्रथम उदाहरण में "मातृ-जननी" अर्थ होने से अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर आ आदेश किया है, जबकि द्वितीय उदाहरण में 'मातृ-देवी' अर्थ होने से अन्त्य ऋ के स्थान पर 'अरा' आदेश किया गया है; यों 'आ' और 'अरा' आदेश प्राप्ति में रहस्य रहा हुआ है उसे ध्यान में रखना चाहिये। सूत्र-संख्या १-१३५ में कहा गया है कि जब 'मातृ' शब्द गौण रूप से समास अवस्था में रहा हुआ हो तो उस 'मातृ' शब्द में स्थित अन्त्य; 'ऋ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति होती है। तदनुसार यहां पर दृष्टान्त दिया जाता है कि-'मातृभ्यः माईण' अर्थात् माताओं के लिये; इस प्रकार 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी होती है। इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-४४ में विघोषित किया गया है कि ऋकारान्त शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति होती है; तदनुसार 'मातृ' शब्द में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उ' की प्राप्ति भी होती है; जैसे:- मात्रा समन्वितम् वन्दे-माऊए समन्निअं वन्दे अर्थात् मैं माता के साथ (समुच्चय रूप से) नमस्कार करता हूं। इस 'माऊए' उदाहरण में 'मातृ' शब्द के
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