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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 303
(७) सूत्र-संख्या ४-२६६ में यह कथन किया गया है कि शौरसेनी में 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'य्य' की विकल्प
से प्राप्ति होती है। जैसे:- आर्य! एषः खु कुमारः मलयकेतुः=अय्य! एशे खु कुमाले मलयकेदू-हे आर्य! ये
निश्चय ही कुमार मलयकेतु है।।। (८) सुत्र-संख्या ४-२६७ में यह विधान प्रविष्ट किया गया है कि शौरसेनी में विकल्प से 'थ' के स्थान पर
'ध' की प्राप्ति होती है। जैसे:- अरे कुम्भिरा कथय=अले कुम्मिला कधेहि अरे कुम्भिरा! कहो!! (१) सूत्र संख्या ४-२६८ में यह उल्लेख किया गया है कि "इह अव्यय के 'हकार के स्थान पर और वर्तमान कालीन मध्यम परूष के बहवचन के प्रत्यय'ह' के स्थान पर शौरसेनी में विकल्प से 'ध' होता है। जैसे:
अपसरत आर्या! अपसरत आशिलध अय्या है आर्यो! आप हटें; आप हटे।।। (१०)सूत्र-संख्या ४-२६९ में विधान किया गया है कि शौरसनी भाषा में 'भूभव्' धातु के 'भकार' को विकल्प
से 'हकार' की प्राप्ति होती है। अथवा प्राप्त 'हकार' को पुनः विकल्प से 'भकार' की प्राप्ति हो जाती है।
जैसे:- भवति=भोदि (अथवा होदि)-वह होता है। (११) सूत्र-संख्या ४-२७० में कहा गया है कि-शौरसेनी में 'पूर्व' शब्द के स्थान पर 'पुरव' ऐसी आदेश-प्राप्ति
विकल्प से होती है। जैसेः- अपूर्वः अपूरवे अनोखा, विलक्षण।। (१२) सूत्र-संख्या ४-२७१ में सूचित किया गया है कि शौरसेनी-भाषा में सम्बन्ध-कृदन्त सूचक प्रत्यय 'क्त्वा'
के स्थान पर 'इय और दूण' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे:- किम् खलु शोभनः ब्राह्मणो ऽसि इति कृत्वा राज्ञा परिग्रहो दत्तः किं खु शोभणे ब्रह्मणे शि तित्त कलिय लबा पलिग्गहे दिण्णे-क्या निश्चय ही तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण हो, ऐसा मान करके राजा द्वारा सम्मानित किये गये हो। यहां पर
'कलिय' पद में 'क्तवा' के स्थान पर 'इय' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुई है। (१३) सूत्र-संख्या-४-२७२ में यह उल्लेख है कि 'कृ' धातु और 'गम्' धातु में 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'डित्' पूर्वक (अन्त्य अक्षर के लोप पूर्वक) 'अडुअ' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जैसे:
कृत्वा-कडुअ-करके।। गत्वा=गडुअ-जाकर के।। यो 'अडुअ' की प्राप्ति समझ लेनी चाहिये। (१४) सूत्र-संख्या ४-२७३ में कहा गया है कि-वर्तमानकाल के अन्य पुरूष के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' और 'ए' के स्थान पर 'दि' प्रत्यय रूप की प्राप्ति होती है। जैसे:-अमात्य-राक्षसं प्रेक्षित
इतः एवं आगच्छति-अमच्च-ल-कशं पिक्खिदु इदाय्येव आगश्रचदि-राक्षस नामक मंत्री को देखने के लिये इधर ही
वह आता है अथवा आ रहा है। यहां पर आगश्चदि में 'इ, ए' के स्थान पर 'दि' का प्रयोग हुआ है। (१५) सूत्र-संख्या ४-२७४ में यह समझाया गया है कि अकारान्त धातुओं में वर्तमानकाल के अन्य पुरूष के
एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ और ए' के स्थान पर 'दे' की भी प्राप्ति होती है। जैसे:- अरे! किम् एष महान्तः कलकल, श्रूयते=अले किं एशे महन्दे कलयले शुणीअंद=अरे ! यह बड़ा कोलाहल क्यों सुनाई दे
रहा है? इस उदाहरण में 'शुणीअदे' में 'दे' का प्रयोग हुआ है। (१६) सूत्र-संख्या ४-२७५ में यह सूचना की गई है कि शौरसेनी भाषा में भविष्यत्काल-अर्थक प्रत्ययों में 'हि,
स्सा और हा' के स्थान पर 'स्सि' रूप की प्राप्ति होती है। जैसेः- तदा कुत्र नु गतः रूधिरप्रियः भविष्यति-ता
कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भविस्सिदि-उस समय में कहा गया हुआ ही रक्त का प्रेमी होगा।। (१७) सूत्र-संख्या ४-२७६ में यह बतलया गया है कि अकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'आदा
और आदु' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- अहमपि भागुरायणात् मुद्राम् प्राप्तोमि-अहपि भागुलायणादो मुदं पावेमि=मैं भी भागुरायण से मुद्रा को प्राप्ति करता हूं। यहां पर 'भागुलायणादो' का रूप दिखलाया गया है।
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