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________________ 302 : प्राकृत व्याकरण धीवले।। तस्मात्ताः (४-२७८)।। ता याव पविशामि।। मोन्त्याण्णो वेदेतोः (४-२७९)।। युत्तं णिम।। शलिशं णिम।। एवार्थेय्येव (४-२८०)। मम य्येव।। हजे चेटयाह्वाने (४-२८१)। हजे चदुलिके।। हीमाणहे विस्मय-निर्वेदे (४-२८२)॥ विस्मये। यथा उदात्तराधवे। राक्षसः हीमाणहे जीवन्त-वश्चा मे जणणी। निर्वेदे।। यथा विक्रान्तभीमे। राक्षसः हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधिणो दुव्ववशिदेण।। णं नन्वर्थे (४-२८३)।। णं अवशलोपशप्पणीया लायाणो॥ अम्म हे हर्षे (४-२८४)।। अम्महे एआए शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भव।। ही ही विदूषकस्य (४-२८५)॥ ही ही संपन्ना मे मणोलधा पियवयस्सस्स। शेषं प्राकृतवत् (४-२८६)। मागध्यामपि दीर्घ हस्वौ मिथो वृत्तौ (१-४) इत्यारम्भ तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य (४-२६०) इत्यस्मात् प्राग् यानि सूत्राणि तेषु यानि उदाहरणानि सन्ति तेषु मध्ये अमूनि तद वस्थान्येव मागध्याममूनि पुनरेवं विधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः।। अर्थः- मागधी-भाषा में 'प्राकृत और शौरसेनी' के अतिरिक्त जो कुछ परिवर्तन अथवा रूपान्तर होता है वह ऊपर सूत्र-संख्या (४-२८७) से (४-३०१) में व्यक्त कर दिया गया है। शेष परिवर्तन के संबंध में इस सूत्र में और इसकी वृत्ति में कह दिया गया है कि-अन्य सभी प्रकार का परिवर्तन संस्कृत से मागधी में रूपान्तर करने की दशा में प्राकृत-भाषा में तथा शौरसेनी-भाषा में वर्णित परिवर्तन सम्बन्धी नियमों के अनुसार जानना चाहिये। इस प्रकार के संकेत के साथ-साथ 'प्राकृत तथा शौरसेनी' में वर्णित कुछ मूल सूत्रों के साथ उदाहरण भी वृत्ति में दिये हैं; जिन्हें मैं हिन्दी-अर्थ-पूर्वक निम्न प्रकार से लिख देता हूँ:(१) सूत्र-संख्या ४-२६० में बतलाया है कि 'तकार' का 'दकार' होता है तदनुसार मागधी-भाषा का उदाहरण इस प्रकार है:- प्रविशतु आयुक्तः स्वामि-प्रसादाय-प्रविशदु आवुत्ते शामिपशादाय-स्वामी की प्रसन्नता के लिये सचेष्ट प्रवेश करो।। (२) सूत्र-संख्या ४-२६१ में कहा गया है कि हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् रहने वाले 'तकार' का भी 'दकार हो जाता है। जैसे:- अरे! किम् एष महान्तः करतलः-अले! किं एश महन्दे कलयले-क्या यह महान् हथेली है ? (३) सूत्र-संख्या ४-२६२ में लिखा गया है कि 'तावत् अव्यय के आदि 'तकार' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'दकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- अयम् तावत् तस्य आगमः; (अधुना) मारयत वा धारयत वा-अयं दाव शे आगमे, (अहुणा) मालेध वा धालेध वा-यह उसका आगमन हो गया है; (अब) मारो अथवा रक्षा करो। यों 'तावत्' के स्थान पर 'दाव' रूप की प्राप्ति हुई है। (४) सूत्र-संख्या ४-२६३ में संकेत किया गया है कि 'इन्' अन्त वाले शब्दों के संबोधन के एकवचन में 'स्' प्रत्यय परे रहने पर अन्त्य 'नकार' के स्थान पर विकल्प से 'आकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- भो कञ्चुकिन्!=भो! कञ्चुइआ अरे कञ्चूकी।। (५) सूत्र संख्या ४-२६४ में यह उल्लेख किया गया है कि-'नकारान्त' शब्दों के एकवचन में 'स' प्रत्यय परे रहने पर अन्त्य 'नकार' के स्थान पर विकल्प से 'मकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- भो राजन् ! भो रायं-हे राजा॥ (६) सूत्र-संख्या ४-२६५ में यह प्रदर्शित किया गया है कि-'भवत्' और 'भगवत्' शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'स्' प्रत्यय प्राप्त होने पर निर्मित पद 'भवान् और भगवान् के अन्त्य 'नकार' के स्थान पर 'मकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) एतु भवान् श्रमणः भगवान् महावीरः एदु भवं शमणे भयवं माहवीले आप महा प्रभु श्रमण महावीर पधारे है।। (२) भगवन् कृतान्त! य आत्मनः पक्षं त्यक्त्वा परस्य पक्षं प्रमाणी करोषि-हे भयवं कदन्ते! ये अप्पणो पकं उज्झिय पलस्स पकं पमाणी कलशि हे भगवान् यमराज! आप ऐसे हैं, जो कि अपने पक्ष को छोड़ करके दूसरे पक्ष को प्रमाण-स्वरूप करते हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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