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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 301 नहीं बतला कर 'भीमशेणस्स' ऐसा रूप प्रदर्शित किया गया है। द्वितीय उदाहरण में 'हिडिम्बाह' नहीं लिखकार 'हिडिम्बाए' लिखा गया है; जो यह सूचित करता है कि स्त्रीलिंग शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'आह' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। यों 'आह और स्स' प्रत्ययों की वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-२९९।।
आमो डाह वा॥४-३००। मागध्यामवर्णात् परस्य आमोनुनासिकान्तोडित् आहादेशो वा भवति।। शय्यणाहँ सुह।। पक्षे। नलेन्दाण॥ व्यत्ययात् प्राकृतेपि ताहँ। तुम्हाहँ। अम्हाहँ। सरिआहँ। कम्माहँ।।
अर्थः- मागधी-भाषा में अकारान्त पुल्लिग अथवा नपुंसकलिंग वाले शब्दों में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ण' अथवा 'ण' के स्थान पर विकल्प से अनुनासिक सहित 'डाहँ' -आह की प्राप्ति होती है। सूत्र में उल्लिखित 'डाहँ में स्थित 'डकार' इत्संज्ञावाचक होने से 'आह' प्रत्यय लगने के पहिले अकारान्त शब्दों के अन्त्य 'अकार' का लोप हो जाता है। तदनुसार केवल 'आह' प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। उदाहरण यों है:सज्जनानाम् सुखम् शय्यणाहँ सुहं सज्जन पुरूषों का सुख। वैकल्पिक पक्ष होने से षष्ठी-विभक्ति बोधक प्रत्यय 'ण अथवा णं' का उदाहरण भी यों है:- नरेन्द्रणाम्नलिन्दाणं-राजाओं का। मागधी-भाषा में प्रत्यय 'आह' कभी-कभी प्राकृत-भाषा में भी देखा जाता है। ऐसी स्थिति को 'व्यत्यय' स्थिति कही जाती है। प्राकृत भाषा के उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) तेषां ताहँ उनका अथवा उनके। (२) युष्माकम्=तुम्हाहँ-तुम्हारा, तुम्हारे; आपका-आपके। (३) अस्माकम् अम्हाहँ हमारा, हमारे। (४) सरिताम्=सरिआहँ-नदियों का। (५) कर्मणाम्-कम्माहँ कर्मों का-कार्यो का। यों मागधी का प्रभाव प्राकृत-भाषा में भी देखा जाता है।।४-३००।।
अहं वयमोहगे।।४-३०१॥ मागध्यामहं वयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति।। हगे शक्कावदालतिस्त-णिवासी धीवले। हगे शंपत्ता।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में उपलब्ध उत्तम पुरूषवाचक सर्वनाम रूप 'अहम् और वयम्' के स्थान पर मागधी भाषा में केवल एक ही रूप 'हगे' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- अहम् शकावतार तीर्थनिवासी धीवरः= (१) हगे शक्कावदालतिस्त-णिवाशी धीवले-शक्रावतार नामक तीर्थ का रहने वाला मैं मच्छीमार हूँ। (२) वयम् संप्राप्ताः-हगे शंपत्ता-हम (सब) आनन्द पूर्वक पहुंच गये है।। यों इन दोनों दृष्टान्तों में 'अहम् और वयम्' के स्थान पर 'हगे' रूप की आदेश-प्राप्ति हुई है।।४-३०१।।।
शेषं शौरसेनीवत्।।४-३०२॥ मागध्यां यदुक्तं ततोन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। तत्र तो दोनादो शौरसेन्यामयुक्तस्य-(४-२६०)।। पविशदु आवुत्तेशामि-पशादाय।। अधः क्वचित्-(४-२६१)।। अले कि एशे महन्दे कलयले।। वादेस्तावति (४-२६२)। मालेध वा धलेध वा। अयं दाव शे आगमे।। आ आमन्त्र्ये सौ वे नो नः(४-२६३)। भो कञ्चुइआ।। मो वा (४-२६४) भो राय॥ भवद्गवतोः (४-२६५) एदु भवं शमणे भयवं महावीले। भयवं कदन्ते ये अप्पणो प कं उज्झिय पलस्स प:कं पमाणी कलेशि।। नवार्योय्यः (४-२६६)।। अय्य एशे खु कुमाले मलयकेदू।। थो घः (४-२६७)।। अले कुम्भिला कधेहि।। इह हचोर्हस्य (४-२६८) ओ शल ध अय्या ओशल ध।। भुवो भः (४-२६९)।। भोदि।। पूर्वस्य पुरवः (४-२७०)। अपुरवे।। क्त्व इय दूणो (४-२७१)। किं खु शोभणे ब्रह्मणे शित्ति कलिय लबा पलिग्गहे दिण्णे।। क-गमो डडअः (४-२७२) कडुआ। गड्। दिरिचे चौः (४-२७३)। अमच्च ल कशं पिक्खिदु इदोय्येव आगश्चदि।। अतोदेश्च (४-२७४)।। अले किं एशे महन्दे कलयले शुणीअदे।। भविष्यति स्सिः (४-२७५)।। ता कहिंनुकदे लुहिलप्पिए भविस्सिदि।। अतोङसेर्डा दो डादू (४-२७६)। अहं पि भागुलायणादो मुदं पावेमि।। इदानीमो दाणिं (४-२७७)। शुषध दाणिं हगे शक्कावयालतिस्त-णिवाशी
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