________________
300 : प्राकृत व्याकरण
क्षस्य कः।।४-२९६॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्य को जिहामूलीयो भवति।। य के ल-कशो। अनादावित्येव॥ खय-यल-हला-क्षय जलधरा इत्यर्थः।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा में अनादि रूप से रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर मागधी-भाषा में 'जिव्हामूलीय 'क' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- (१) यक्षः=य के-यक्ष जाति का देवता विशेष। (२) राक्षसः ल करो-राक्षस, बाण-व्यन्तर जाति का देव विशेष।
प्रश्नः- अनादि रूप से रहे हुए 'क्ष' के स्थान पर ही मागधी-भाषा में 'जिव्हामूलीय क' की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- यदि 'क्षकार' अनादि में नहीं होकर आदि में रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर मागधी-भाषा में 'जिह्वामूलीय क' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:- क्षय-जलधराः खय-यलहला=नष्ट हुए बादल। यहां पर आदि क्षकार को खकार की प्राप्ति हुई है।।४-२९६।।
स्कः प्रेक्षाचक्षोः॥४-२९७।। मागध्यां प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः को भवति।। जिव्हामूलीयापवादः।। पेस्कदि। आचस्कदि।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के 'प्रेक्ष' और 'आचक्ष' में स्थित 'क्षकार' के स्थान पर मागधी-भाषा में हलन्त 'सकार' सहित 'ककार' की प्राप्ति होती है। यह सूत्र उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२९६ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है। उदाहरणों यों है:- (१) प्रेक्षते-पेस्कदि वह देखता है। (२) आचक्षते आचस्कदि वह कहता है।।४-२९७।।
तिष्ठ श्चिष्ठः।।४-२९८॥ मागध्यां स्थाधातोर्यस्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्य चिष्ठ इत्यादेशो भवति।। चिष्ठदि।
अर्थः- संस्कृत-धातु 'स्था' के स्थान पर 'तिष्ठ' का आदेश होता है और उसी आदेश प्राप्त 'तिष्ठ' धातु-रूप के स्थान पर मागधी-भाषा में 'चिष्ठ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- तिष्ठति-चिष्ठदि-वह बैठता है।।४-२९८।।
अवर्णाद्वा उसो डाहः।।४-२९९।। मागध्यामवर्णात् परस्य उसो डित् आह इत्यादेशो वा भवति।। हगे न एलिशाह कम्माह काली। भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे। पक्षे भीमशेणस्स पश्चादो हिण्हीअदि। हिडिम्बाए घडुक्कयशोकेण उवशमदि।।
अर्थः- मागधी-भाषा में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में अथवा नपुंसकलिंग में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उस्-स्स' के स्थान पर विकल्प से 'डाह-आह' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। सूत्र में उल्लिखित 'डाह' प्रत्यय में स्थित 'डकार' से संज्ञा शब्दों में स्थित अन्त्य 'अकार' की इत् संज्ञा अर्थात् लोप-स्थिति प्राप्त होती है। ऐसा तात्पर्य प्रदर्शित है। उदाहरण यों है-(१) अहम् न ईदृशः कर्मणःकारी-हगे न एलिशाह कम्माह काली=मैं इस प्रकार के कर्म का करने वाला नहीं हूँ। (२) भगदत्तशोणितस्य कुम्भः=भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे-भगदत्त नामक व्यक्ति-विशेष के रक्त का (यह) घड़ा है। इन उदाहरणों में 'एलिशाह, कम्माह और शोणिदाह' षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्स' के स्थान पर 'आह' लिखा गया है। वैकल्पिक स्थिति होने से पक्षान्तर में 'स्स' प्रत्यय भी होता है। जैसे:- (१) भीमसेनस्य पश्चात् हिण्डयते भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डीअदि=भीमसेन के पीछे-पीछे घूमता है।। (२) हिडिम्बायाः घटोत्कचशोकः न उपशाम्यति हिडिम्बाए घडक्कयशोकेण उवशकमदि-हिडिम्बा राक्षसिंण का (उसके पुत्र) घटोत्कच-(के मृत्यु का) शोक शान्त नहीं होता है। इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में भीमशेणाह'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org