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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 299
न्य–ण्य-ज्ञ जां वः।।४-२९३।। मागध्यां न्य-ण्य-ज्ञ-च इत्येतेषां द्विरुक्तो बो भवति।। न्य। अहिमचु-कुमाले। अचदिश।। शामब-गुणे। कचका-वलण।। ण्य। पुचवन्ते। अबम्हच॥ पुजाह।। पुच।। ज्ञ। पञाविशाले। शव्वये। अवच।।
च अञ्जली धुणचए। पचले। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'न्य, ण्य, ज्ञ, ज' के स्थान पर मागधी भाषा में द्वित्व 'ब' की प्राप्ति होती है। जैसे:- 'न्य' के उदाहरणः- (१) अभिमन्यु-कुमार:=अहिम कुमाले-अर्जुन नामक पांडव का पुत्र।, (२) अन्य दिशम् अझ दिशं दूसरी दिशा को। (३) सामान्यगुणः-शाम गुणे साधारण गुण। (४) कन्यका वरणं कम्ञका वलण-पुत्री की सगाई करने सम्बन्धी वाक्य विशेष।। ‘ण्य' के उदाहरण:- (१) पण्यवन्तः पञ्चवन्ते-पण्यवाले अच्छे कर्मो वाले। (२) अब्रहमण्यम अबम्हचं ब्राह्मण के आचरण करने के योग्य नही।। (३) पुण्याहम् पुञा आशीर्वाद और (४) पुण्यम् पूछ-पवित्र काम; शुभ कार्य। 'ज्ञ' के उदाहरणः- (१) प्रज्ञाविशाल:=पचाविशाले विशाल बुद्धि वाला। (२) सर्वज्ञः शव्वछे सब कुछ जानने वाला। (३) अवज्ञा=अवज्ञा तिरस्कार, अनादर। 'च' के उदाहरणः- अञ्जलि-अञ्चली-हथेली से निर्मित पुट विशेष (२) धनञ्जयः-धणञ्चय अर्जुन पांडु-पुत्र। (३) पञ्जरः पञ्चले-शस्त्र विशेष।।४-२९३।।
व्रजो जः।।४-२९४॥ मागध्यां व्रजेर्जकारस्य वो भवति।। यापवादः।। वझदि।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में रही हुई धातु 'व्रज' के 'ज' व्यञ्जन के स्थान पर मागधी-भाषा में द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होती है। यों यह नियम उपर्युक्त सूत्र-संख्या ४-२९२ के लिये अपवाद स्वरूप समझा जाना चाहिये। उदाहरण यों है:- व्रजति-वचदि-वह जाता है।।४-२९४।।।
छस्य श्चोनादौ।।४-२९५॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य छस्य तालव्य शकाराक्रान्तः चो भवति।। गश्च गश्च।। उश्चलदि। पिश्चिले। पुश्चदि।। लाक्षणिकस्यापि। आपन्न-वत्सलः। आवन्न-वश्चले॥ तिर्यक प्रेक्षते। तिरिच्छि पेच्छड। तिरिधि श्चि पेस्कदि। अनादाविति किम्। छाले।। अर्थः- संस्कृत भाषा में यदि किसी भी पद में छकार आदि अक्षर के रूप में नहीं रहा हुआ हो और हलन्त
में भी नहीं हो तो उस 'छकार' के स्थान पर मागधी भाषा में हलन्त तालव्य 'शकार' के साथ-साथ 'चकार' की प्राप्ति होती है। यों अनादि 'छकार' के स्थान पर 'श्व की प्राप्ति मागधी-भाषा में जाननी चाहिये। जैसे:- (१) गच्छ, गच्छ= गश्च, गश्च जाओ, जाओ। (२) उच्छलतिउश्चलदि वह उछलता है। (३) पिच्छिलः-पिश्चिले पंख वाला। (४) पृच्छति-पुश्चदि-वह पूछता है।
व्याकरण के नियमानसार संस्कत-भाषा से प्राकत भाषा में भी यदि किसी व्यञ्जन के स्थान पर 'छकार' की प्राप्ति हई हो तो उस स्थानापन्न 'छकार' के स्थान पर भी मागधी-भाषा में हलन्त तालव्य शकार सा की-अर्थात् 'श्च' की प्राप्ति हो जाया करती है। जैसे :- (१) आपन्न-वत्सल := आवण्ण-वच्छलो = आवन्न-वश्चले जिसको प्रेम-भावना की प्राप्ति हुई हो वह। (२) तिर्यक् प्रेक्षते-तिरिच्छ पेच्छइ-तिरिश्चि पेस्कदि वह टेढ़ा देखता है।
प्रश्न:- 'अनादि' में रहे हुए 'छकार' के स्थान पर ही 'श्च' की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तर:- क्योंकि यदि 'छकार' व्यञ्जन 'शब्द के आदि में रहा हआ होगा तो उस 'छकार' के स्थान पर 'श्च' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसेः- क्षारः-छारो-छाले जलने के पश्चात् बचा हुआ क्षार अथवा खार पदार्थ विशेष। यों आदि 'छकार' को 'श्च' की प्राप्ति नहीं है।।४-२९५।।
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