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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 259 प्राकृत- रूपान्तर 'पच्चागच्छ' भी होता है। जैसे :- प्रत्यागच्छति पलोदृइ अथवा पच्चागच्छइ = वह लौटता है अथवा वह वापिस आती है ।। ४- १६६ ।।
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रामेः पड़िसा - परिसामौ ।। ४-१६७।।
रामेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ पडिसाइ । परिसामइ । समइ ||
अर्थः- 'शान्त होना, क्षुब्ध नहीं होना' अर्थक संस्कृत धातु 'शम् - शाम्य' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पडिसा और परिसाम' की आदेश प्राप्ति होती है। 'सम' भी होता है। तीनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- शाम्यति=पडिसाइ, परीसामइ और समइ = वह शान्त होता है अथवा वह क्षुब्ध नहीं होता है ।। ४-१६७।। रमेः संखुड्ड - खेड्डोब्भाव - किलिकिञ्च - कोट्टुम- मोट्टाय - णीसर - वेल्ला: ।। ४-१६८।। रमतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति । संखुड्डूइ | खेड्डू । उब्भावइ । किलिकिञ्च । कोट्टुमइ । मोट्टाइ । णीसरइ । वेल्लइ ।
रमइ ।
अर्थः- 'क्रीड़ा करना, खेलना' अर्थक संस्कृत धातु 'रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से आठ धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) संखुड्ड, (२) खेड्ड, (३) उब्भाव, (४) किलिकिञ्च, (५) कोट्टाय, (६) मोट्टाय, (७) णीसर और (८) वेल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'रम्' भी होता है। उक्त 'खेलना' अर्थक नव ही धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- रमते = (१) संखुड्डइ, (२) खेड्डइ, (३) उब्भावइ, (४) किलिकिञ्चइ, (५) कोट्टुमइ, (६) मोट्टायइ, (७) णीसरइ (८) वेल्लइ और (९) रमइ = वह खेलता है अथवा वह क्रीड़ा करता है ।। ४- १६८ ॥
पुरेरग्घाडाग्घवोध्दुमाङगुमाहिरेमाः ।।४-१६९ ।।
पुरेरेतेपञ्चादेशा वा भवन्ति ।। अग्घाड । अग्घवइ । उद्धमाइ । अंगुमइ । अहिरेमइ । पूरइ ।।
अर्थ:-'पूर्ति करना, पूरा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'पूर्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातुरूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) अग्घाड, (२) अग्घव, (३) उद्धमा, (४) अंगुम और (५) अहिरेम। वैकल्पिक पक्ष से 'पूर' भी होता है और उक्त छह धातुओं के उदाहरण क्रम
'इस प्रकार है:उद्धुमाइ (४) अंगुमइ, (५) अहिरेमइ और (६) पूरइ = वह पूर्ति करता है
पूरयति = (१) अग्घाडइ, (२) अग्घवइ, अथवा वह पूरा करता है । । ४ - १६९ ।।
त्वरस्तुवर - जअडौ । । ४ - १७० ।।
त्वरतेरेतावादेशौ भवतः । तुवरइ । जअडइ । तुवरन्तो । जअडन्तो ।।
अर्थः- 'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'तुवर और अड' ऐसे दो धातु - रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। इन दोनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:(त्वरयति अथवा ) त्वरते तरइ अथवा जअडइ = वह शीघ्रता करता है, वह जल्दी करता है। इस धातु का वर्तमान दन्त का उदाहरण इस प्रकार है:- त्वरन् तुवरन्तो जअडन्तो शीघ्रता करता हुआ, उतावला करता हुआ । । ४ - १७० ।।
त्यादिशत्रोस्तूरः ।।४ - १७१ ।।
त्वरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति ।। तूरइ । तूरन्तो ।।
अर्थः- 'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत धातु 'त्वर' आगे कालबोधक प्रत्यय 'ति - इ' आदि होने पर अथवा वर्तमान कृदन्त बोधक प्रत्यय 'रातृ - अत- न्त अथवा माण' होने पर 'त्वर' का प्राकृत रूपान्तर आदेश
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