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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 165 बिभ्यति संस्कृत का वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचनान्तमक अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बीहन्ते होता है। इसमें सत्र-संख्या-४-५३ से भय अर्थक संस्कृत-धातु 'भा' के स्थान पर प्राकृत में 'बीह' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'बीह' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बीहन्ते रूप सिद्ध हो जाता है। राक्षसेभ्यः संस्कृत का पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप रक्खसाणं है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-१३४ की वृत्ति से संस्कृत पद में स्थित पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनसार ३-१२ से प्राप्तांग 'रक्खस' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अके आगे षष्ठी विभक्ति के बहवचन-बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'रक्खसा' में ३-६ से उपर्युक्त विधाननुसार षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राप्त-रूप रक्खसाणं सिद्ध हो जाता है। उत्पद्यन्ते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप उप्पज्जन्ते होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से प्रथम हलन्त व्यंजन 'त' का लोप; २-८९ से लोप हुए हलन्त व्यंजन 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति। २-२४ से संयुक्त व्यंजन 'द्य' को 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-१४२ से प्राप्तांग 'उप्पज्ज' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में 'न्ते' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप उप्पज्जन्ते सिद्ध हो जाता है। __कवि हृदय सागरे संस्कृत का समासात्मक सप्तमी विभक्ति के एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कइ-हिअय-सायरे' होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'व' का लोप; १-१२८ से 'ऋ'के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१७७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ग' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'कइ-हिअय-सायर' में ३-११ में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङिइ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में हलन्त 'ड्' इत्यसंज्ञक होने से प्राप्तांग मूल शब्द 'कइ हिअय-सायर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का लोप शेष हलन्त-अंग में उपर्युक्त 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सप्तम्यन्त रूप कइ-हिअय-सायरे सिद्ध हो जाता है। काव्य-रत्नानि संस्कृत का समासत्मक प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त नपुंसकलिंगात्मक संज्ञा का रूप है। इसका प्राकृत रूप कव्व-रयणाइं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-७८ से 'य' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; २-१०१ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' के पूर्व में 'अ' की आगम रूप प्राप्ति; १-१८० से आगमग-रूप से प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; यों प्राप्तांग 'कव्वरयण' में ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की प्राप्ति हाते हुए संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद कव्व-रयणाई सिद्ध हो जाता है। 'दीण्णि' संख्यात्मक विशेषण-पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२० में की गई है। 'वि' और 'न' दोनों अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। प्रभवतः संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का द्विवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप पहुप्पिरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२ ७९ से 'र' का लोप; ४-६३ से धातु-अंश 'भू'=' भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हुप्प' आदेश की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त धातु-अंग 'पहुप्प्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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