________________
166 : प्राकृत व्याकरण होने से लोप; तत्पश्चात् ३-१३० से प्राप्त हलन्त धातु 'पहुप्प्' में द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप पहुप्पिरे सिद्ध हो जाता है।
बाहु संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का द्विवचनात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बाहू ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; ३-१२४ के निर्देश से उकारान्त शब्दों में भी अकारान्त शब्दों के समान ही विभक्ति-बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति; तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'जस्' की प्राकृत-शब्द 'बाहु' में प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्रथमा के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' का सद्भाव होने से बाहुं शब्दान्त्य हस्व स्वर 'उ' दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बाहू रूप सिद्ध हो जाता है।
विक्षुभ्यन्ति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का बहुवचनान्त अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विच्छुहिरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत धातु 'विक्षुभ' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' की द्वित्व'छछ्' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ् के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु विच्छुह्' में विकरण प्रत्यक्ष 'अ की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' का पुनः आगे प्रत्ययात्मक 'इरे' की 'इ' होने से लोप; तत्पश्चात् ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में उपर्युक्त रीति से प्राप्त 'विच्छुह' धातु में 'इरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप विच्छुहिरे सिद्ध हो जाता है।
शुष्यति संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त-अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप ससइरे है। इसमें सत्र-संख्या १-२६० से संस्कत मल धात 'शष' में स्थित दोनों प्रकार के'श' और 'ष' के स्थान पर क्रम से दो दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; ४-२३६ से आदि हस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'सूस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१४२ से प्राकृत धातु 'सूस' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के अर्थ में एकवचन के स्थान पर बहुवचनात्मक प्रत्यय 'इरे' की प्राप्ति होकर प्राकृत-रूप सूसइरे सिद्ध हो जाता है। __ ग्राम-कर्दमः संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका देशज प्राकृत का रूप गाम-चिक्खल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ग्राम में स्थित 'र' व्यञ्जन का लोप; ३-१४२ की वृत्ति के आधार से मूल संस्कृत शब्द 'कर्दम' के स्थान पर देशज-भाषा में 'चिक्खल्ल' शब्द की आदेश प्राप्ति; ३-२ से प्राप्त देशज शब्द गाम-चिकखल्ल' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देशज-प्राकृत पद 'गाम-चिक्खल्लो' सिद्ध हो जाता है। ३-१४२।।
मध्यमस्येत्था-हचौ ॥३-१४३।। ___ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां मध्यमस्य त्रयस्य बहुषु वर्तमानस्य स्थाने इत्था हच् इत्येतावादेशौ भवतः हसित्था। हसह। वेवित्था। वेवह। बाहुलकादित्थान्यत्रापि। यद्यत्ते रोचते। जं जं ते रोइत्था। हच् इति चकारः इह-हचोर्हस्य (४-२६८) इत्यत्र विशेषणार्थः।। ___ अर्थः-संस्कृत-धातुओं में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनार्थ में परस्मैपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'थस्' तथा 'थ' के स्थान पर और आत्मनेपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' और 'हच्-ह' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसथः हसित्था और हसह-तुम दोनों हँसते हो; अथवा तुम दोनों हँसती हो। हसथ-हसित्था और हसह-तुम हँसते हो अथवा तुम हँसती हो। वेपेथे वेवित्था और वेवह-तुम दोनों कांपते हो अथवा तुम दोनों कांपती हो। वेपध्वे वेवित्था
और ववह-तुम (सब) कांपते हो अथवा तुम (सब) कांपती हो। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'इत्या' प्रत्यय का प्रयोग द्वितीय पुरुष के अतिरिक्त अन्य पुरुष के अर्थ में भी प्रयुक्त होता हुआ देखा जाता है। जैसेः- यत् यत् ते रोचते-जं जं ते रोइत्था जो जो तुझे रूचता है; इत्यादि। यहां पर संस्कृत क्रियापद रोचते में वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचन उपस्थित है; जबकि इसी के प्राकृत रूपान्तर रोइत्था में द्वितीया पुरुष के बहुवचन का प्रत्यय 'इत्था' प्रदान किया गया है। यों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org