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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 167 वर्तमानकालीन द्वितीय पुरुष के बहुवचन में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय 'इत्था के प्रयोग की अनियमितता कभी-कभी एवं कहीं-कहीं पर पाई जाती है। उपर्युक्त 'ह' प्रत्यय के साथ में जो 'चकार' जोड़ा गया है। उसका तात्पर्य यह है कि आगे सूत्र-संख्या ४-२६८ से इह-हचोर्हस्य 'सूत्र का निर्माण किया जाकर इस 'ह' प्रत्यय के संबंध में शोर सेनी-भाषा में होने वाले परिवर्तन का प्रदर्शन किया जाएगा। अतएव 'सूत्र-रचना करने की दृष्टि से 'ह' प्रत्यय के अन्त में हलन्त 'च' की संयोजना की गई है। __हसथः तथा हसथ संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप है। इनके प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही हसित्था एवं हसह होते है। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-१० से हम धातु के अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इत्था' की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग-धातु 'हस्' में ३-१४३ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन और बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'थस्' तथा 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हसित्था सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप हसह में सूत्र-संख्या ३-१४३ से हस धातु में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन ओर बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'थस्' ओर 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हसह भी सिद्ध हो जाता है। _वेपेथ और वेपध्वे संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से ही वेवित्था और वेवह होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प्' व्यंजन के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्राकृत धातु 'वेव' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इत्था की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग-धातु 'वेव्' में ३-१४३ से वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में तथा बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्था' प्रत्यय प्राप्ति होकर प्रथम रूप वेवित्था सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप वेवह में सूत्र-संख्या ३-१४३ से प्राकृत में प्राप्त धातु 'वेव' में वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में और बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'इथे' और 'ध्वे के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्विनीय रूप वेवह भी सिद्ध हो जाता है। 'ज' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है। 'ते' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९९ में की गई है। रोचते संस्कृत का वर्तमानकाल का प्रथमपुरुष का एकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका (आर्ष) प्राकृत रूप रोइत्था है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; १-१० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'अ' के आगे प्रत्ययात्मक 'इत्था' की 'इ' का सद्भाव होने से लोप; ३-१४३ की वृत्ति से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्राप्त आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीय पुरुष-बोधक बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्था' की प्राप्ति होकर (आर्ष) प्राकृत रूप रोइत्था सिद्ध हो जाता है।।३-१४३।। तृतीयस्य मो-मु-माः ।। ३-१४४।। __ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्य संबन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचनस्य स्थाने मो मु म इत्येते आदेशा भवन्ति।। हसामो। हसामु। हसाम। तुवरामो। तुवरामु। तुवराम।। __ अर्थः- संस्कृत-धातुओं में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के द्विवचनार्थ में तथा बहुवचनार्थ में परस्मैपदीय धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'वस्' और 'मस्' के स्थान पर तथा आत्मनेपदीय-धातुओं में क्रम से संयोजित होने वाले प्रत्यय 'वहे एवं महे' के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से 'मो, मु, और म' में से किसी भी एक प्रत्यय की आदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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