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366 : प्राकृत व्याकरण
का विधान होने से अनेक स्थानों पर 'मा' के स्थान पर 'मा' का ही और 'म' का भी प्रयोग देखा जाता है। 'मा' और 'म' के उदाहरण गाथा संख्या चार में और पाँच में क्रम से बतलाये गये हैं; उनका अनुवाद यों है:संस्कृत : माने प्रनष्टे यदि न तनुः तत् देशं त्यजेः।।
मा दुर्जन-कर-पल्लवैः दय॑मानः भ्रमेः।।४।। हिन्दी:-यदि आपका मान-समान नष्ट हो जाय तो शरीर का ही परित्याग कर देना चाहिये और यदि शरीर नहीं छोड़ा जा सके तो उस देश का ही (अपने निवास स्थान का ही) परित्याग कर देना चाहिये; जिससे कि दुष्ट पुरूषों के हाथ की अंगुली अपनी ओर नहीं उठ सके अर्थात् वे हाथ द्वारा अपनी ओर इशारा नहीं कर सकें और यों हम उनके आगे नहीं घूम सके।।४।। संस्कृत : लवणं विलीयते पानीयेन, अरे खल मेघ ! मा गर्ज।।
ज्वालितं गलति तत्कुटीरकं, गोरी तिम्यति अद्य।। ५।। हिन्दी:-नमक (अथवा लावण्य-सौन्दर्य) पानी से गल जाता है-याने पिगल जाता है। अरे दुष्ट बादल! तू गर्जना मत कर। जली हुई वह झोंपड़ी गल जायगी और उसमें (बैठी हुई) गौरी-(नायिका-विशेष) आज गीली हो जायगी-भींग जाएगी।। ५।। चौथी गाथा में 'मा' के स्थान पर 'मा' ही लिखा है और पाँचवी में 'मा' की जगह पर केवल 'म' ही लिख दिया है।। संस्कृत : विभवे प्रनष्टे वक्रः ऋद्धो जन-सामान्यः।।
किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुहरति, नान्यः।। ६।। हिन्दी:-संपत्ति के नष्ट होने पर मेरा प्रियतम पतिदेव टेढ़ा हो जाता है अर्थात् अपने मान-सम्मान-गौरव को नष्ट नहीं होने देता है और ऋद्धि की प्राप्ति में याने संपन्नता प्राप्त होने पर सरल-सीधा हो जाता है। मुझे चन्द्रमा की प्रवृत्ति भी ऐसी ही प्रतीत होती है; वह भी कलाओं के घटने पर टेढा-वक्राकार हो जाता है और कलाओं की संपूर्णता में सरल याने पूर्ण दिखाई देता है। यों कुछ अनिर्वचनीय रूप में चन्द्रमा मेरे पतिदेव की थोडी सी नकल करता है; अन्य कोई भी ऐसा नहीं करता है। इस गाथा में 'मनाक्' अव्यय के स्थान पर 'मणाउँ रूप का प्रयोग किया गया है।। ६।।४-४१८।।
किलाथवा-दिवा-सह-नहेः किराहवइ दिवेसहुँ नाहि।।४-४१९।। अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति।। किलस्य किरः।। किर खाइ न पिअइ, न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ।। इह किवणु न जाणइ, जइ जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ।।१।। अथवो हवइ।। अह वइ न सुवंसह एह खोडि।। प्रायोधिकारात्।। जाइज्जइ तहिं देसडइ लब्भइ पियहो पमाणु। जइ आवइ तो आणिअइ अहवा तं जि निवाणु।। २।। दिवो दिवे। दिवि दिवि गङ्गा-हाणु।। सहस्य सहुँ।। जउ पवसन्तें सहुं न गयअ न मुअ विओएं तस्सु।। लज्जिज्जइ संदेसडा दिन्तेहिं सुहय-जणस्सु।। ३।। नहे नाहि।। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु, एत्तहे वडवानल आवट्टइ।। पेक्खु गही रिम सायरहो एक्कवि कणिअनाहिं ओहट्टइ।।४।। अर्थः-इस सूत्र में भी अव्ययों का ही वर्णन है। तद्नुसार संस्कृत भाषा में उपलब्ध अव्ययों के स्थान पर अपभ्रंश
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