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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 367 भाषा में जिस रूप में आदेश प्राप्ति होती है; वह स्थिति इस प्रकार से है:-(१) किल-किर-निश्चिय ही। (२) अथवा अहवइ-अथवा विकल्प से इसके बराबर यह। (३) दिवा दिवे-दिन-दिवस। (४) सह-सहुं-साथ मे।। (५) नहिं नाहि नाहिं नही।। यों अपभ्रंश भाषा में 'किल' आदि अव्ययों के स्थान पर 'किर' आदि रूप में आदेश प्राप्ति होती है। इन अव्ययों का उपयोग वृत्ति में दो गई गाथाओं में किया गया है। उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : किल न खादति, न पिवति न विद्रवति, धर्मे न व्ययति रूपकम्।।
इह कृपणो न जानाति, यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः।।। हिन्दी:-निश्चय ही कंजूस न ( अच्छा ) खाता है और न ( अच्छा ) पीता है। न सदुपयोग ही करता है और न धर्म- कार्यो में ही अपने धन को व्यय करता है। किन्तु कृपण इस बात को नहीं जानता है कि अचानक ही यमराज का दूत आकर क्षण भर में ही उसको उठा लेगा। उस पर मृत्यु का प्रभाव डाल देगा। इस गाथा में 'किल' अव्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त किर' अव्यय का उपयोग समझाया गया है।।१।।
हिन्दी:-अथवा न सुवंशानामेष दोषः अहवइ न सुवंसह एह खोडि=अथवा श्रेष्ठ वंश वालों का-उत्तम खानदान वालों का-यह अपराध नहीं है। इस गाथा चरण में अथवा' के स्थान पर 'अहवइ' रूप की आदेश-प्राप्ति बतलाई है। 'प्राय' रूप से विधान का अधिकार होने के कारण से 'अथवा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में अनेक स्थानों पर 'अहवा' रूप भी देखा जाता है। इस सम्बन्धी उदाहरण गाथा-संख्या दो में यों है:संस्कृत : यायते (गम्यते) तस्मिन् देशे, लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम्।।
यदि आगच्छति तदा आनीयते, अथवा तत्रैव निर्वाणम्।। २।। हिन्दी:-मैं उस देश में जाती हूँ; जहाँ पर कि प्रियतम पतिदेव की प्राप्ति के चिन्ह पाये जाते हो।। यदि वह आता है तो उसको यहाँ पर लाया जायगा अथवा नहीं आवेगा तो मैं वहीं पर ही अपने प्राण दे दूंगी। इस गाथा में 'अथवा' की जगह पर 'अहवा' रूप लिखा हुआ है।। २।। ___ संस्कृतः-दिवसे दिवसे (दिवा दिवा) गङ्ग-स्नानम् दिवि-दिवि-गंगा-हाणु-प्रत्येग दिन गंगा स्नान (करने जितना पुण्य प्राप्त होता है) इस गाथा-पद में 'दिवा' के स्थान पर 'दिवे-दिवि' रूप का उल्लेख किया गया है। संस्कृत : यत् प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य।।
लज्ज्यते संदेशान् ददतीभिः (अस्माभिः) सुभग जनस्य।। ३।। __ हिन्दी:-जब मेरे पतिदेव विदेश-यात्रा पर गये तब मैं उनके साथ में भी नहीं गई और उनके वियोग में भी। (विरह-जनि -दुख से) मृत्यु को भी नहीं प्राप्त हुई-मृत्यु भी नहीं आई; ऐसी स्थिति में उनको संदेश भेजने में मुझे लज्जा आती है। इस गाथा में 'सह' अव्यय के स्थान पर आदेश-प्राप्त 'सहुँ' अव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।। ३।। . संस्कृत : इतः मेघाः पिबन्ति जलं, इतः वडवानल आवर्तते।।
प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका नहि अपभ्रंश्यते।।४।। हिन्दी:-समुद्र के जल को एक ओर तो ऊपर से मेघ-बादल-पीते हैं और दूसरी ओर अन्दर से समुद्राग्नि उसको अपने उदरस्थ करती जाती है। यो समुद्र की गंभीरता को देखा कि इसकी एक बूंद भी व्यथ में नहीं जाती है। इस गाथा में 'नहिं' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'नाहिं' अव्यय रूप की प्ररूपणा की गई है।।४।।४-४१९।। पश्चादेवमेवैवेदानी-प्रत्युतेतसः पच्छइ एम्वइ जि एस्वहि पच्चलिउ एत्तहे।।४-४२०।।
अपभ्रंशे पश्चादादीनां पच्छइ इत्यादय आदेशा भवन्ति।। पश्चातः पच्छइ। पच्छइ होइ विहाणु। एवमेवस्य एम्वइ। एम्वइ सुरउ समत्तु।। एवस्य जिः।।
जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउं कइ पय देइ।।
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