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368 : प्राकृत व्याकरण
हिअइ तिरिच्छी हउं जि पर पिउ डम्बरई करेइ।।१।। इदानिम एम्वहि। हरि नच्चाविउ पङ्गणइ विम्हइ पाडिउ लोउ।। एम्वहिं राह-पओहरहं जं भावइ तं होउ।। २।। प्रत्युतस्य पच्चलिउ।। साव-सलोणी गोरडी नवरवी कवि विस-गण्ठि।। भडु पच्चलिउ सो मरइ, जासु न लग्गइ कण्ठि।। ३।। इतस एत्तहे।। एत्तहे मेह पिअन्ति जलु।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्ययों के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में जैसी आदेश-प्राप्ति होती है; उसी का वर्णन किया जा रहा है। तदनुसार इस सूत्र में छह अव्ययों की आदेश-प्राप्ति समझाई गई है। वे छह अव्यय अर्थ पूर्वक क्रम से इस प्रकार से है:
(१) पश्चात् पच्वइ-पीछे-बाद मे।। (२) एवमेव=एम्वइ=ऐसा ही, इस प्रकार का ही। (३) एव-जि-ही निश्चय ही। (४) इदानीम् एम्वहि-इसी समय में-अभी। (५) प्रत्युत-पच्चलिउ-वैपरीत्य-उल्टापना। (६) इतः एत्तहे-इस तरफ-इधर-एक ओर। यों संस्कृत अव्यय 'पश्चात् आदि के स्थान पर 'पच्छइ' आदि
रूप से आदेश-प्राप्ति होती है। उपरोक्त छह अव्ययों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:(१) पश्चात् भवति विभातम्=पच्छइ होइ विहाणु-पीछे ( तत्काल ही ) प्रभात-प्रातःकाल हो जाता है। (२) एवमेव सुरतं समाप्तम्-एम्वइ सुरउं समत्तु इस प्रकार से ही ( हमारा ) सुरत ( रति-कार्य ) समाप्त हो गया।। संस्कृत : यातु, मा यान्तं पल्लवत, द्रक्ष्यामि कति पदानि ददाति।।
हृदये तिरश्चीना अहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति।।१।। हिन्दी:-यदि (मेरा पति) जाता है तो जाने दो; जाते हुए उसको मत बुलाओ ! मैं (भी) देखती हूँ कि वह कितने डग भरता है? कितनी दूर जाता है ? क्योंकि मैं उसके हदय में (आगे बढ़ने के लिये) बाधा रूप ही हूँ। (अर्थात् मेरा वह परित्याग नहीं कर सकता है) इसलिये मेरा प्रियतम (जाने का) आडम्बर मात्र ही (केवल ढोंग ही) करता है। इस गाथा में 'अहमेव' पद के स्थान पर 'हउजि' पद का प्रयोग करके यही समझाया है कि 'एव' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'जि' अव्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है।।१।। संस्कृत : हरिः नर्तितः प्राङ्गणे, विस्मये पातितः लोकः।।
इदानीम् राधा-पयोधरयाः यत् (प्रति) भाति, तद् भवतु॥२॥ हिन्दी:-हरि (कृष्ण) आंगन में नीचा अथवा नचाया गया और इससे जन-साधारण (दर्शक-वर्ग) आश्चर्य (सागर) में डूब गया (अथवा डुबाया गया) (सत्य है कि इस समय में राधा-रानी के दोनों स्तनों को जो कुछ भी अच्छा लगता हो, वह होवे। (उसके अनुसार कार्य किया जावे)।। इस गाथा में 'इदानी' अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'एम्वहि आदेश-प्राप्त- अव्यय-रूप का प्रयोग प्रस्तत किया गया है।। २।। संस्कृत : सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विष-ग्रन्थिः।।
भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे।। ३।।
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