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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 331 वचन में संस्कृत प्रत्यय "उस" के स्थान पर 'डासु-आसु" प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। "डासु" रूप लिखने का तात्पर्य यह है कि "यत्-ज'", "तत्-त" और "किम्-क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अकार" का "डासु-आसु" प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है। यों "डासु" में स्थित "डकार" इत्संज्ञक है। गाथाओं में इन सर्वनामों के जो उदाहरण दिये हैं; वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) जासु-यस्य जिसका; (२) तासु-तस्य-उसका और (३) कासु-कस्य=किसका।। गाथाओं का अनुवाद निम्न प्रकार से है:संस्कृत : कान्त अस्मदीयः हला सखिके! निश्चयेन रूष्यति यस्य।। ___ अस्त्रैः शस्त्रै हस्तै रपि स्थान मपि स्फोटयति तस्य।।१।। हिन्दी:- हे सखि ! हमारा कान्त-प्रियपति-जिस पर निश्चय से रूठ जाता है-अथवा क्रोध करता है; तो उसके स्थान को भी निश्चय ही अस्त्रों से, शास्त्रों से और (यहाँ तक कि) हाथों से भी नष्ट कर देता है।।१।। संस्कृत : जीवितं कस्य न वल्लभकं, धनं पुनः कस्य नेष्टम्।। द्वे अपि अवसर निपतिते, तृणसमे गणयति विशिष्टः।। २।। हिन्दी:- किसको (अपना) जीवन प्यारा नहीं है? और कौन ऐसा है जिसको कि धन (प्राप्ति) की आकांक्षा नहीं है? अथवा धन प्यारा नहीं है ? किन्तु महापुरूष कठिनाईयों के क्षणों में भी अथवा समय पड़ने पर भी दोनों को ही (जीवन तथा धन को भी) तृण घास तिनके के समान ही गिनता है। अर्थात् दोनों का परित्याग करने के लिये विशिष्ट पुरूष तत्पर रहते हैं।।२।।४-३५८।। स्त्रियां डहे।।४-३५९॥ अपभ्रंशे स्त्रीलिंगे वर्तमानेभ्यो यत्तत्-किंभ्यः परस्य ङसो डहे इत्यादेशो वा भवति।। जहे केरउ। तहे केरउ। कहे केरउ।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग वाचक सर्वनाम 'या-जा', सा' और 'का' के षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'उस्' के स्थान पर 'डहे अहे' प्रत्यय की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। 'डहे रूप लिखने का यह रहस्य है कि 'जा, सा अथवा ता और का' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' का 'डहे-अहे' प्रत्यय जोड़ने पर लोप हो जाता है। यों 'डहे' प्रत्यय में अववस्थित 'डकार' इत्संज्ञक है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- (१) यस्याः कृते जहे केरउ जिसके लिये।(२) तस्याः कृते-तहे केरउ-उसके लिये और (३) कस्यः कृते कहे केरइ-किसके लिये।।४-३५९।। यत्तदः स्यमोधूत्रं ॥४-३६०।। अपभ्रंशे यत्तदोः स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यं धंत्रं इत्यादेशौ वा भवतः।। प्रगणि चिट्ठदि नाहु धंत्रं राणि करदि न भ्रन्ति।।१।। पक्षे। तं बोल्लिअइ जु निव्वहइ।। अर्थः- अपभ्रंश भाषा में 'यत' सर्वमान के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय प्राप्त होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'यत्' और 'प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में 'ध्र" रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तत् सर्वनाम में भी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर तथा द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय जुड़ने पर मूल शब्द 'तत्' और विभक्ति-प्रत्यय दोनों के स्थान पर दोनों विभक्तियों में 'त्र' रूप की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार से हैं: (१) प्रागंणे तिष्ठति नाथः यत् यद् रणे करोति न भ्रान्तिम्-प्रगणि चिट्ठदि नाहु घुत्रं राणि करदि न भ्रन्ति= (क्योंकि) मेरे पति आंगन में विद्यमान है; इसलिये रण-क्षेत्र में संदेह को (अथवा भ्रमण को) नहीं करता है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'यत्' के स्थान पर 'जु रूप की और 'तत्' के स्थान 'तं' रूप की भी प्राप्ति होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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