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330 : प्राकृत व्याकरण
(२) तहि-तस्मिन् (अथवा तत्र)-उसमें (अथवा वहाँ पर)। (३) एक्कहिं एकस्मिन्-एक में। (४) अन्नहि अन्यस्मिन-दसरे में। (५) कहि-कस्मिन् कहाँ पर। तीनों गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः, छिद्यते खड्गेन खड्गः।।
तस्मिन् ताद्दशे भट घटा निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम्।।१।। हिन्दी:-जहाँ पर अर्थात् जिस युद्ध में बाण से बाण काटा जाता है अथवा काटा जा रहा है और जहाँ पर तलवार से तलवार काटी जा रही है। ऐसे भयंकर युद्व में रणवीर रूपी बादलों के समूह में (मेरा बहादुर) पति (अन्य वीरों को) युद्ध कला का आदर्श मार्ग बतलाता है (अथवा बतला रहा है)।।१।। संस्कृत : एकस्मिन् अक्ष्णि श्रावणः, अन्यस्मिन् भाद्रपदः।
माधवः (अथवा माघः) महीतलस्त्रं गण्ड स्थले शरत्।। अंगेशु ग्रीष्मः सुखासिका तिलवने मार्गशीर्षः।
तस्याः मुग्धायाः मुख पंकजे आवासितः शिशरः।। २।। हिन्दी:-इस काव्य रूप श्लोक में ऐसी नायिका की स्थिति का वर्णन किया गया है; जो कि अपने पति से दूर स्थल पर अवस्थित है। पति-वियोग से इस नायिका की आँखों में अश्रु-प्रवाह प्रवाहित होता रहता है, इससे ऐसा मालूम होता है कि मानों इसकी एक आँख में श्रावण मास का निवास स्थान है और दूसरी में भाद्रपद मास है। (पत्र और पुष्पों से निर्मित) उसका भूमि तल पर बिछाया हुआ बिस्तरा बसंत ऋतु के समान अथवा माघ मास के समान प्रतीत होता है। उसके गालों पर शरत्-ऋतु की आभा दिखाई देती है और अङ्ग-अङ्ग पर (वियोग-जनित-उष्णता के कारण से) ग्रीष्म ऋतु का आभास प्रतीत हो रहा है। (जब वह शांति के लिये) तिल उगे हुए खेतों में बैठती है तो ऐसा मालूम होता है कि मानों वहाँ पर मार्ग-शीर्ष मास का समय चल रहा है। ऐसी उस मुग्धा नायिका के मुखकमल की स्थिति है कि मानों उसके मुख-कमल पर 'शिशिर ऋतु का निवास स्थान है।।२।। संस्कृत : हृदय ! स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा काल क्षेपेण किम्।।
पश्यामि हत विधिः क्व स्थापयति त्वया विना दुःख शतानि।। ३।। हिन्दीः- हे हृदय ! 'तड़ाक' ऐसा शब्द करके अथवा करते हुए फट जा-विदीर्ण हो जा; ऐसा करने में विलम्ब करने से क्या (लाभ) है? क्योंकि मै देखता हूँ कि यह दुर्भाग्य तेरे सिवाय अन्यत्र इन सैकड़ों दुःखों को कहाँ पर स्थापित करेगा? अर्थात् इन आपतित सैंकड़ों दुःखों को झेलने की अपेक्षा से तो मृत्यु का वरण करना ही श्रेष्ठ है।।४-३५७।।
यत्तत्किंभ्यो ङसो डासु न वा॥४-३५८॥ अपभ्रंशे यत्तत्-किम् इत्येतेभ्यो कारान्तेभ्यः परस्य उसो डासु इत्यादेशो वा भवति। कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छइं रूसइ जासु।। अत्थिहिं सत्थिहिं हत्थिहिं वि ठाउ वि फेडइ तासु।।१।। जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इठु।। दोण्णि वि अवसर-निवडिआई तिण-सम गणइ विसिठ्ठ।। २।। - अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'यत् तत् और किम्' सर्वनामों के अकारान्त पुल्लिंग अवस्था में षष्ठी विभक्ति के एक
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