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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 187 अर्थः- अकारान्त धातुओं में यदि भूत कृदन्त का प्रत्यय 'त-अ' लगा हुआ हो तो उन अकारान्त धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर निश्चित रूप से 'इ' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- हसितम्-हसिअं-हँसा हुआ; हँसे हुये को; पठितम्=पढिअं-पढा हुआ अथव पढे हुए को निमतम् नविनमा हुआ अथवा नमे हुए को हासितम्-हासिअं-हँसाया हुआ; पाठितम्=पाढिअं-पढ़ाया हुआ; इत्यादि। इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि धातुओं में भूत-कृदन्त-वाचक प्रत्यय 'त-अ' का सद्भाव होने के कारण से मूल धातुओं के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति हो गई है। प्राकृत-भाषा में कुछ धातुओं के भूत-कृदन्तीय-रूप ऐसे भी पाये जाते हैं जो कि उपर्युक्त-नियम से स्वतन्त्र होते हैं। जैसे:- गतम् गयं गया हुआ; नतम्-नयम्=नमा हुआ; अथवा जिसको नमस्कार किया गया हो-उसको; इन उदाहरणों में भूत-कृदन्तीय-अर्थ का सद्भाव होने पर भी 'गम और नम' में स्थित अन्त्य 'अ' को 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई हैं; इसका कारण यही है कि इनकी प्रक्रिया-संस्कृत रूपों के आधार से बनी हुई है और तत्पश्चात् प्राकृत वर्ण-विकार-गत-नियमों से इन्हें प्राकृत-रूपों की प्राप्ति हो गई है। सारांश यह है कि संस्कृत-सिद्ध अवस्था की अपेक्षा से इन प्राकृत-रूपों का निर्माण हुआ है और इसीलिये ऐसे रूप इस सूत्र-संख्या ३-१५६ से स्वतन्त्र हैं; इस सूत्र का अधिकार ऐसे रूपों पर नहीं समझना चाहिये।
प्रश्नः-अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ पर 'इ' की प्राप्ति हो जाती है। ऐसा ही क्यों कहा गया हैं? और अन्य स्वरान्त धातुओं स्थित अन्त्य स्वर के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है?
उत्तरः- चूँकि अकारान्त धातुस्थ अन्त्य 'अ' के स्थान पर ही भूत-कृदन्तीय प्रत्यय के परे रहने पर 'इ' की प्राप्ति होती है तथा दूसरी धातुओं में स्थित अन्य किसी भी अन्त्य स्वर के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं होती है; इसीलिये ऐसा निश्चयात्मक विधान प्रदर्शित किया गया है। इसके समर्थन में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:- ध्यातम्=झायं ध्यान किया हुआ; लूनम् लुअं-कतरा हुआ अथवा चोरा हुआ, और भूतम् हूअंगुजरा हुआ; इत्यादि। इन उदाहरणों में 'झा, लु और हूं में क्रम से स्थित स्वर 'आ, उ, और ऊ के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है। अतएव जैसी परम्परा भाषा में प्रचलित होती है उसी के अनुसार नियमों का निर्माण किया जाता है; तदनुसार केवल अकारान्त-धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर ही आगे भूत-कृदन्तीय-प्रत्यय का सद्भाव होने पर 'इ' की प्राप्ति होती है अन्य स्वर के स्थान पर नहीं; ऐसा सिद्धान्त निश्चित हुआ। ___ हसितम् संस्कृत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हसिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से हलन्त-व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त-प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ववर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर हसिअंरूप सिद्ध हो जाता है। ___ पठितम् संस्कृत भूत-कृदन्तीय रूप का प्राकृत रूप पढिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से 'ठ्' व्यंजन के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति: १-१७७ से हलन्त व्यंजन 'त' का लोपः ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर पढिअंरूप सिद्ध हो जाता है।
नमितम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत-रूप नविअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत-धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग 'नव्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से भूत-कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त 'त्' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'नविअ में द्वितीय विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नविअं रूप सिद्ध हो जाता है। 'हासिप्रेरणार्थक रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१५२ में की गई है।
पाठितम् संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाढिअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत-धातु 'पठ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्त 'पद' में स्थित आदि स्वर For Private & Personal Use Only
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