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________________ 188 : प्राकृत व्याकरण 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय का सद्भाव होकर भूत कृदन्तीय-अर्थक प्रत्यय का योग होने से उस प्रेरणार्थक प्रत्यय का लोप होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'पाढ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; -१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भत-कदन्तीय प्रत्यय का योग होने के कारण से 'इ' की प्राप्तिः ४-४४८ से संस्कृत में प्राप्त भूत-कृदन्त-अर्थक प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से भूत- कृदन्तीय प्रत्यय 'त' में हलन्त व्यंजन 'त्' को लोप; ३-५ प्राप्तांग 'पाढिअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक पाढिअं रूप सिद्ध हो जाता है। गयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है। __ नतम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप नय होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्तांग नय में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'य' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नयं रूप सिद्ध हो जाता है। ध्यातम् संस्कृत भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप झायं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६ से मूल संस्कृत-धातु 'ध्यै के स्थान पर प्राकत में झारूप की आदेश प्राप्तिः ४-४४८ से भत-कदन्तीय-अर्थ में संस्कत के समान ही प्राकत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त भूत-कृदन्तीय प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्तांग 'झाय' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत-प्राकृत-रूप झायं सिद्ध हो जाता है। लूनम् संस्कृत भूत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप लुअंहोता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२५८ से सम्पूर्ण संस्कृत शब्द 'लून' के स्थान पर प्राकृत में 'लुअ' रूप की आदेश प्राप्ति; ३-५ से आदेश रूप से प्राप्तांग 'लुअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत-कृदन्तीय द्वितीया-विभक्ति के एकवचन का प्राकृत-रूप लुअं सिद्ध हो जाता है। भूतम् संस्कृत का भूत-कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत-रूप 'भूअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६४ से भूत कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण के मूल-संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत में 'हू रूप की आदेश प्राप्ति; ४-४४८ से भूत कृदन्त अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'हुअ' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूतकृदन्तीय द्वितीय विभक्ति के एकवचन का प्राकृत-रूप भूअं सिद्ध हो जाता है। ॥३-१५६।। एच्च क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु ।। ३-१५७॥ क्त्वातुम्तव्येषु भविष्यत्कालविहिते च प्रत्यये परतोत एकारश्रकारादिकारश्च भवति।। क्त्वा। हसेऊण। हसिऊण।। तुम् हसेउ।। हसिउं।। तव्य। हसेअव्वं। हसिअव्वं।। भविष्यत्। हसेहिइ। हसिहिइ।। अत इत्येवा काऊण।। अर्थः- प्राकृत भाषा की अकारान्त धातुओं में सम्बन्धक भूतकृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय ‘क्त्वा-त्वा' के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'ऊण, उआण' आदि होने पर अथवा हेत्वर्थक-कृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय 'तुम्' के स्थान पर प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'उ' आदि होने पर अथवा विधि-कृदन्त द्योतक संस्कृत प्रत्यय 'तव्य' के प्राकृत में स्थानीय प्रत्यय 'अव्व' होने पर अथवा भविष्यत-काल-बोधक पुरुष-वाचक प्रत्यय होने पर उन अकारान्त धातुओं के अन्त में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है एवं मूल सूत्र में चकार' का सद्भाव होने के कारण से कभी-कभी उन अकारान्त धातुओं के अन्त्यस्थ'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति भी हो जाया करती है। सम्बन्धक भूतकृतन्त संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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