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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 231 अर्थः- नि उपसर्ग सहित 'द्राधातु के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'ओहीर और उच' इन दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'निद्रा' के स्थान पर 'निद्दा' रूप भी होगा। जैसे:- निद्राति-ओहरिइ, उङइ और निद्दाइ-वह निद्रा लेता है ।।४-१२।।
__ आघेराइग्घः ।।४-१३।। आजिघ्रते राइग्घ इत्यादेशो वा भवति।। आइग्घइ। अग्घाइ।
अर्थः- संस्कृत धातु 'आजिघ्' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'आइग्घ' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में अग्घा रूप भी होगा। जैसे-आजिघ्रति आइग्घइ और अग्घाइ-वह सूंघता है।।४-१३॥
स्नातेरब्भुत्तः।। ४-१४॥ स्नातेरब्भुत्त इत्यादेशो वा भवति।। अब्भुत्तइ। णहाइ।।
अर्थः- संस्कृत धात, 'स्ना' के स्थान पर प्राकृत में विकल्प से 'अब्भुत्त' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'हा' रूप भी होगा। जैसे-स्नाति अब्भुत्तइ और ण्हाइ-वह स्नान करता है।।४-१४।।
समः स्त्यः खाः ॥४-१५॥ संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति।। संखाइ। संखाय।।
अर्थः- सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत धातु 'स्त्यै-स्त्याय' के स्थान पर प्राकृत में 'खा' रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे संस्त्यायति-संखाइ-वह घेरता है, वह फैलाता है। वह सर्व प्रकार से चिन्तन करता है। संस्त्यनम् संखायं ध्यान करना, चिन्तन करना।। ४-१५।।
स्थष्ठा-थक्क-चिट्र-निरप्पाः ।। ४-१६।। __ तिष्ठतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति। ठाइ। ठाअइ। ठाणं। पट्टिओ। उट्ठिओ। पट्टाविओ। उट्ठाविओ। थक्कइ। चिट्ठइ। चिट्ठऊण। निरप्पइ।। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति। थि। थाणं। पत्थिओ। उत्थिओ। थाऊण।
अर्थः- ठहरने अर्थ वाली संस्कृत धातु 'स्था-तिष्ठ' के स्थान पर प्राकृत में चार आदेश रूपों की प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार हैं:- (१) ठा, (२) थक्क (३) चिट्ठ और (४) निरप्प। उदाहरण इस प्रकार हैं:- तिष्ठति-ठाइ, ठाअइ, थक्कइ, चिट्ठइ, निरप्पइ वह ठहरता है। अन्य उदाहरण भी इस प्रकार हैं:- (१) स्थानम्-ठाणं स्थान। ( प्रस्थितः पट्रिओ-जाता हुआ; (३) उत्थितः उट्रिओ-उठता हुआ अथवा उठा हुआ; (४) प्रस्थापितः पट्टाविओ-रखा हुआ अथवा रखता हुआ; (५) उत्थापितः उठ्ठाविओ-उठाया हआ, स्थित्वा चिट्रिऊण-ठहर करके। ___ बहुल सूत्र के अधिकार से कहीं-कहीं पर उक्त आदेश प्राप्ति नहीं भी होती है, जैसे कि- स्थितम् थिअं-ठहरा हुआ, रखा हुआ। स्थानं थाणं-स्थान। प्रस्थितः पत्थिओ-प्रस्थान किया हुआ, जाता हुआ। उत्थितः उत्थिओ उठा हुआ और स्थित्वा थाऊण ठहर करके। यों सर्वत्र आदेश रहित स्थिति को भी समझ लेना चाहिये। ।।४-१६।।
उदष्ठ-कुक्कुरौ ॥४-१७॥ उदः परस्य तिष्ठतेः ठ कुक्कुर इत्यादेशौ भवतः।। उट्ठइ।। उक्कुक्कुरइ।।
अर्थः-उत् उपसर्ग सहित होने पर 'स्था-तिष्ठ्' धातु के स्थान पर 'ठ' और कुक्कुर' धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उत्तिष्ठति-उट्ठइ और उक्कुक्कुरइ-वह उठता है ।।४-१७।।
म्लेर्वा-प्वायौ।। ४-१८।। म्लायतेर्वा पव्वाय इत्यादेशौ वा भवतः।। वाइ। पव्वायइ। मिलाइ।
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