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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 325 द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर उक्त 'उ' और 'अ' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति जानना चाहिये । यों प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में उक्त प्रत्ययों की संयोजना करने के पहिले प्रत्येक स्त्रीलिंग शब्द के अन्त्य स्वर को विकल्प से हस्व के स्थान पर दीर्घत्व की और दीर्घ स्वर के स्थान पर ह्रस्व स्वर की प्राप्ति भी क्रम से हो जाती है। ऐसा होने से दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्रत्यय शब्द के लिये चार चार रूपों की प्राप्ति हो जाया करती है वह सूत्र सूत्र - संख्या ४- ३४४ के प्रति अपवाद रूप सूत्र है। दोनों ही विभक्तियों के बहुवचनों में समान रूप से प्रत्ययों का सद्भाव होने से 'यथा' संख्यम् अर्थात् 'क्रम से' ऐसा कहने की आवश्यकता नहीं रही है। दोनों विभक्तियों के क्रम 'उदाहरण इस प्रकार हैं: ( १ ) अंगुल्यः जर्जरिताः नखेन = अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेण = ( गणना करने के कारण से नख से अंगुलियाँ जर्जरित हो गई हैं; पीड़ित हो गई है । । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में 'उ' प्रत्यय' की प्राप्ति हुई है। पूरी गाथा सूत्र संख्या सूत्र संख्या ४- ३३३ में देखना चाहिये । (२) सुन्दर-सर्वांगी: विलासिनी: प्रेक्षमाणानाम् = सुन्दर - सव्वंगाउ विलालिणीओ (विलासिणीओ) पेच्छन्ताण सभी अंगों से सुन्दर आन्नद मग्न स्त्रियों को देखते हुए (पुरूषों) के लिये (अथवा पुरूषों के हृदय में ) । । यहाँ पर भी द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में से 'उ' और 'ओ' प्रत्ययों को प्रदर्शित किया गया है ।।४-३४८ ॥ ट ए।।४-३४९॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानाननाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशौ भवति ।। निअ - मुह- करहिं वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्खइ || ससि-मंडल-चंदिमए पुणु काइं न दूरे देवख ॥ | १ || जहिं मरगय-कन्तिए संवलिअ || अर्थः- अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' 'स्थान पर 'ए' ऐसे एक ही प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'ए' की संयोजना करने के पहिले शब्द के अन्त में रहे हुए हस्व स्वर को दीर्घ स्वर की और दीर्घ स्वर को ह्रस्व की ह्रस्व स्वर की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है । यों स्त्रीलिंग शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से दो दो रूपों की प्राप्ति होती है। जैसे: - चन्द्रिकया = चंदिमए - चांदनी से । यहाँ पर 'ए' प्रत्यय के पूर्व 'चंदिमा ' से 'चदिम' हो गया है। (२) कान्त्या = कन्तिए - कांति से आभा से || वृत्ती में दी गई गाथाओं का अनुवाद क्रम से इस प्रकार हैं:निज मुख करैः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिपेक्षते ।। राशि- मंडल - चन्द्रिकया पुनः किं न दूरे पष्यति १ ॥ संस्कृत : हिन्दी:- ( विषयों में आसक्त हुई) मुग्धा (स्त्री) अपने मुख को किरणों से भी अन्धकार में अपने हाथ को देख लेती है; तो फिर पूर्ण चन्द्र- मंडल की चांदनी से दूर दूर तक क्यों नहीं देख सकती हैं? अथवा किन किन को नहीं देखती है || १ || (२) संस्कृत : - यत्र मरकत - कान्त्या संवलितम् = जहिं मरगय-कन्तिए संलिअं जहाँ पर मरकत - मणि की कान्ति से- आभासे - घेराये हुए को - आच्छादित को । ( गाथा अपूर्ण है) ।। २ ।। शेष रूपों की कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिये।।४-३४९।। डस्-ङस्योर्हे।।४-३५०॥ अपभ्रंशे स्त्रियाम् वर्तमानान्नाम्नः परयोर्डस् ङसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशौ भवति ।। ङसः । तुच्छ - मज्झेहे तुच्छ - जपिरहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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