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324 : प्राकृत व्याकरण
____ अर्थः-अति मदोन्मत्त और अंकुश को भी नहीं मानने वाले ऐसे हाथियो। की गर्दनों का विदारण करने वाले और ऐसा पराक्रम होने के कारण से जिसके यश का वर्णन सैकड़ों युद्धों में किया जाता है; ऐसे हमारे पति को देखो।।१।। _ 'गय कुम्भई पद का निर्माण समास रूप में भी हो सकता हैं और ऐसा होने पर 'गयाहं पद में रहे हुए प्रत्यय 'ह' का व्याकरणनसार लोप हो जाता हैं: परन्त यहाँ पर प्राप्तव्य प्रत्यय 'ह' का लोप 'समास नहीं करके ही बतलाने का ध्येय हैं; इसलिये इस 'गय' पद को 'कुम्भइ' पद से पृथक ही समझना चाहिये। इस मन्तव्य को समझाने के लिये ही वृत्तिकार ने वृत्ति में 'पृथक-योगो' अर्थात् 'दोनों को अलग-अलग समझों' ऐसी सूचना उक्त पदों से दी है। 'लक्ष्यानुसारार्थः' का तात्पर्य यह है कि:-व्याकरण के नियम का अनुसरण करने के लिये ही उक्त पद ‘गय' को षष्ठी वाला ही समझो।।४-३४५।।
आमन्त्र्ये जसो होः।।४-३४६।। अपभ्रंशे आमन्त्र्येर्थे वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसो हो इत्यादेशो भवति। लोपापवादः।। तरूणओ तरूणिहो मुणिउ मइँ करहु म अप्पहो घाउ।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में संबोधन के बहुवचन में संज्ञाओं में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर (विकल्प से) 'हो' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इस सूत्र को सूत्र-संख्या ४-३४४ के स्थान पर अपवाद रूप समझना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- हे तरूणाः ! हे तरूण्यः (च) ज्ञातं मया, आत्मनः घातं मा कुरूत-तरूण्हो! तरूणिहो! मुणिउ मइँ, करहु म अप्पहो घाउ-अरे नवयुवको। और अरे नवयुतियों ! मैंने (सत्य) ज्ञान प्राप्त किया हैं; इसलिये तुम अपने आपको (विषय-अग्नि में डाल कर के) आत्म-घात मत करो। यहाँ पर 'तरूण्हो और तरूणिहो' पद संबोधन-बहुवचन के रूप में प्राप्त होकर 'हो' प्रत्ययान्त है।।४-३४६।।
भिस्सुपोर्हि।।४-३४७।। अपभ्रंशे भिस्सुपोः स्थाने हिं इत्यादेशौ भवति।। गुणहिं न संपइ कित्ति पर। (४-३३५)॥ सुप्॥ भाईराहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में तृतीया के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस् के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती हैं; इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'सुप' के स्थान पर भी अपभ्रंश भाषा में 'हिं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है।। दोनो के क्रम से उदारहरण इस प्रकार हैं:
(१) गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहिं न संपइ कित्ति पर=गुणों से संपत्ति नहीं प्राप्त की जा सकती हैं; परन्तु (गुणों से) कीर्ति प्राप्त की जा सकती है।। (पूरी गाथा सूत्र-संख्या ४-३३५ में देखो) (२) भागीरथी यथा भारते त्रिषु मार्गेषु प्रवर्तते=भाईरहि जिवँ भारइ मग्गेहिं तिहिं वि पयट्टइ-जैसे गंगा नदी भारतवर्ष में तीन मार्गों में बहती है। यहाँ पर 'भग्गेहि और तिहिं' पदों में सप्तमी-बहुवचन-बोधक-अर्थ में 'सुप्' प्रत्यय के स्थान पर 'हिं' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति जाती है।।४-३४७।।
स्त्रियां जस्-शसोरूदोत्।।४-३४८।। __ अपभ्रशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येकमुदोतावादेशौ भवतः। लोपापवादो।। जसः। अंगुलिउ जज्जरयाउ नहेण।। (४-३३३) शसः।
सुन्दर-सव्वङगाउ विलालिणीओ पेच्छन्ताण।।१।। वचन-भेदान्न यथा-संख्यम्।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में सभी प्रकार के स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'उ' और 'ओ' ऐसे दो प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से इन्हीं स्त्रीलिंग शब्दों के
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