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________________ तिवँ तिवँ वम्महु निअय - सर खर- पत्थरि तिक्खे ॥ | १ || अत्र स्यम् शमां लोपः ।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में इकारान्त पुल्लिंग और उकारन्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के दोनों वचनों में तथा द्वितीया विभक्ति के दोनों वचनों में क्रम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि, जस् और अमृ, शम् का लोप हो जाता है। लोप होने के पश्चात् उक्त दोनों विभक्तियों के दोनों वचनों में दो-दो रूप क्रम से ह्रस्व स्वरान्त और दीर्घ स्वरान्त के रूप में बन जावेंगे। अर्थात् ह्रस्व इकार, दीर्घ इकार के रूप में और ह्रस्व उकार, दीर्घ ऊकार के रूप में विकल्प से स्थान पर ग्रहण कर लेता है। जैसा कि सूत्र - संख्या ४- ३३० में लिखित गाथा में अंकित 'थलि' पद से ज्ञात होता है। स्थली =थलि पृथ्वी भाग । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'सि' का लोप हुआ है। उपरोक्त सूत्र - रचना से भी ज्ञात होता है कि अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी प्रथमा के दोनों वचनों में तथा द्वितीया के दोनों वचनों में भी विकल्प से इन प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' जस्, अम्, शस् का लोप हो जाता है। लोप प्राप्ति के पश्चात् अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अकार' के स्थान पर विकल्प से दीर्घ स्वर 'आकार' की प्राप्ति होती है। उदाहरण के रूप में सूत्र-संख्या ४-३३० में दी गई गाथाओं के पदों में ये रूप देखे जा सकते हैं :- कुछ उदाहरण इस सूत्र के संदर्भ में दी गई गाथा में भी दिये हैं जो इस प्रकार हैं:- (१) श्यामला - सामलि= श्याम वर्ण वाली नायिका (प्रथमान्त पद)। (२) निजक- शरान-निअय-सर अपने बाणों को (द्वितीया - बहुवचनान्त पद) (३) वक्रिमाणं वकिम= नेत्रों को टेढ़ा करने की वृत्ति को (द्वितीया एक वचनान्त पद) इन उदाहरणों द्वारा उक्त विभक्तियों में प्राप्तव्य प्रत्ययों का लोप प्रदर्शित किया गया है ।। पूरी गाथा का अनुवाद इस प्रकार है: संस्कृत : यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला षिक्षते ॥ तथा तथा मन्मथः निजकषरान् खर- प्रस्तरे तीक्षणयति ।। हिन्दी:-यह श्याम-वर्णीय नव युवती ज्यों ज्यों दोनों आँखों द्वारा कटाक्ष- पूर्वक वक्र देखने की वृत्ति को सीखती हैं; त्यों त्यों कामदेव अपने बाणों को तीक्ष्ण - पत्थर पर अधिकारधिक तीक्ष्ण- तेज करता जा रहा है ।।४-३४४।। षष्ठयाः।।४-३४५॥ अपभ्रंशे षष्ठया विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति || संगर-सए हिँ जु वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कन्तु ।। अइमत्तहं चत्तङकु सहं गयकुम्भदं दारन्तु ॥१॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्धः ॥ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित 323 अर्थः-अपभ्रंश भाषा में अकारान्त शब्दों में षष्ठी विभक्ति के एकवचन तथा बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्ययों का विकल्प से अथवा प्रायः लोप होता है; इकारान्त एवं उकारन्त शब्दों में भी षष्ठी एकवचन के प्रत्ययों का सर्वथा लोप हो जाता है; ऐसा होने पर मूल अङग के अन्त्य स्वर को ही विकल्प से दीर्घत्व की प्राप्ति होती है। जैसे:इसि अथवा इसी = ऋषि का । गुरू अथवा गुरू = गुरूजी का । स्त्रीलिंग शब्दों में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन में और बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय का विकल्प से लोप होता है । वृत्ति में उद्धत गाथा में षष्ठी विभक्ति वाले तीन पद आये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-(१) अइमत्तहं-अतिमत्तानां - बहुत ही मदोन्मत्त हुओं की ; (२) चत्तङ्कुसहं त्यक्तांकुशानाम् - जिन्होंने अंकुश (हाथी को संभालने का छोटा सा हथियार विशेष) को चुभाकर दिये जाने वाले आदेश को मानने से इन्कार कर दिया हैं-ऐसे (हाथियों) को; (३) गय= गजानाम् = हाथियों को । इन उदाहरणों में से प्रथम दो उदाहरणों में तो षष्ठी - बहुवचन-बोधक-प्रत्यय 'ह' का अस्तित्व है; जबकि तीसरे पद में उक्त प्रत्यय का लोप हो गया हैं; यों षष्ठी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय की 'प्रायः ' स्थिति कही गई है। गाथा का अनुवाद इस प्रकार हैं: संस्कृत : संगरशतेषु यो वणयते पष्य अस्माकं कान्तम् ॥ Jain Education International अतिमत्तानां त्यक्तङ्कुषानां मजानां कुभ्भान् दारयन्तम्॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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