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________________ 322 : प्राकृत व्याकरण और पवनसन्तेण-दयितेन प्रवसता प्रवास करते हुए (विदेश जाते हुए) पतिदेव से।। इस वाक्य में 'ण' और 'अनुस्वार' दोनों प्रत्ययों का उपयोग प्रदर्शित कर दिया है।। शब्दान्त्य अकार' के स्थान पर 'एकार' की प्राप्ति भी हुई है।।४-३४२।। एं चेदुतः॥४-३४३॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टावचनस्य एं चकारात् णानुस्वारौ च भवन्ति।। ए।। अग्गिएं उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेव।। जो पुणु हग्गि सीअला तसु उण्ह त्तणु केव।।१।। णानुस्वारौ। विप्पिअ-आरउ जइ वि पिउ तो वि तं आणहि अज्जु।। अग्गिण दड्डा जइ वि घरू तो तें अग्गि कज्जु।। २।। एवमुकारादप्युदाहाः ।। अर्थः- अपभ्रंश भाषा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में, पुल्लिंग और नपुंसकलिगों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होती है।। इसके सिवाय मूल-सूत्र में और वृत्ति में प्रदर्शित 'चकार' से सूत्र-संख्या ४-३४२ में वर्णित प्रत्यय अनुस्वार तथा 'ण' की अनुवृत्ति भी कर लेनी चाहिये। यों इकारान्त उकारन्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'एं, अनुस्वार और ण' इन तीन प्रत्ययों। का सद्भाव हो जाता है। इनके अतिरिक्त सूत्र संख्या १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति भी हो जाती है। 'ए' प्रत्यय के उदाहरण उपरोक्त प्रथम गाथा में इस प्रकार दिये गये हैं:- (१) अग्निना-अग्गिएं अग्नि से; (२) वातेन वाएं-हवा से। अनुस्वार का उदाहरणः- (१) अग्निना=अग्गि=अग्गि से। द्वितीय गाथा में 'ण' प्रत्यय र' प्रत्यय का । एक एक उदाहरण दिया गया है। जो कि इस प्रकार है:- (१) अग्गिण-अग्निना अग्नि से और (२) त तेन उससे; तथा (३) अग्गि=अग्निना=अग्नि से। ये उदाहरण इकारान्त पुल्लिंग शब्द के दिये गये हैं और उकारन्त पुल्लिंग शब्द के उदाहरणों की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये; ऐसी सूचना ग्रन्थकार वृत्ति में देते है। उपरोक्त दोनों गाथाओं का संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अग्निना उष्णं भवति जगत्; वातेन शीतलं तथा। यः पुनः अग्निना शीतलः, तस्य उष्णत्वं कथम्।। हिन्दी:-यह सारा संसार अग्नि से उष्णता का अनुभव करता है और हवा से शीतलता का अनुभव करता है; परन्तु जो (सन्त-महात्मा) अग्नि से शीतलता का अनुभव कर सकते हैं; उनको उष्णता जनित पीड़ा कैसे प्राप्त हो सकती है? अर्थात् त्यागशील महात्मा को विषय-कषाय रूप अग्नि कुछ भी पीड़ा नहीं पहुंचा सकती है। संस्कृत : विप्रिय कारकः यद्यपि प्रियः तदपि तं आनय अद्य। अग्निना दग्ध यद्यपि गृहं, तदपि तेन अग्निना कार्यम्।। २।। हिन्दी:-मेरा पति मुझे दुःख देने वाला है; फिर भी उसको आज (ही) यहाँ पर लाओ। (क्योंकि अन्ततोगत्वा वह मेरा स्वामी ही है) जैसे कि अग्नि से यद्यपि सारा घर जल गया है। फिर भी क्या अग्नि का त्याग किया जा सकता हैं? अर्थात् क्या दैनिक कार्यों में अग्नि की आवश्कता पड़ने पर अग्नि का उपयोग नहीं किया जाता है।।४-३४३।। स्यम्-जस-शसां लक।।४-३४४।। ___ अपभ्रंशे सि, अम्, जस्, शस्, इत्येतेषां लोपो भवति।। एइ ति घोड़ा, एह थलि।। (४-३३०) इत्यादि। अत्र स्यम् जसां लोपः।। जिवँ जिवं वकिम लोअणहं, णिरू सामलि सिक्खेइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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