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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 145 सूत्र - संख्या १- १८७ से मूल संस्कृत शब्द मधु में स्थित 'धू' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यञ्जन की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-११ से और ३- १२४ के निर्देश से उपर्युक्त प्राकृत रूप दहिम्मि के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप सिद्ध हो जाता है।
'गिरी' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २२ में की गई है।
गुरु प्रथमा बहुवचनान्त रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है।
चिट्ठन्ति क्रियापद रूप की सिद्ध सूत्र - संख्या ३- २० की गई है।
गिरीओ रूप की सिद्धि एकवचनान्त अवस्था में तो सूत्र - संख्या ३- २३ में की गई है; तथा बहुवचनान्त अवस्था में सूत्र - संख्या ३ -१६ में की गई है।
गुरोः और गुरुभ्यः क्रम से संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचनान्त और बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इन दोनों का प्राकृत रूपान्तर एक जैसे ही (समान रूप ही) गुरूओ होता है इसमें सूत्र - संख्या ३- १२ से और ३- १६ से क्रम से एकवचन
और बहुवचन में मूल शब्द गुरु में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-८ से और ३-९ से तथा ३ -१२४ के निर्देश से प्राप्त प्राकृत रूप 'गुरु' में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि=अस' के स्थान पर प्राकृत में 'दो= ओ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इसी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर भी 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों वचनों में समान स्थित वाला प्राकृत रूप गुरुओ सिद्ध हो जाता है।
आगआ क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २०९ में की गई है। 'गिरीण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है। 'गरूण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र ३ - १२४ में ऊपर की गई है। 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - ५० में की गई है ।। १ - १२४ ।। न दीर्घो णो ।। ३-१२५।।
इदुदन्तयोरर्थाज्जस्-रास् ङस्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो दीर्घो न भवति ।। अग्गिणो । वाउणो णो इति किम् अग्गी । अग्गीओ |
अर्थः-इकारान्त उकारान्त शब्दों में सूत्र - संख्या ३ - २२ के अनुसार प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होने परे इन शब्दों में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घत्व की प्राप्ति नहीं होती है। इसी प्रकार से सूत्र संख्या ३- २३ के अनुसार इन्हीं इकारान्त और उकारान्त शब्दों में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय ' ङसि - अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घत्व की प्राप्ति नहीं होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नयः = अग्गिणो; अग्नीन्=अग्गिणो। वायवः वाउणो; वायून वाउणो पंचमी विभक्ति के एकवचन के उदाहरण इस प्रकार हैं:- अग्ने = अग्गिणो और वायोः वाउणो; इत्यादि ।
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प्रश्नः- उक्त विभक्तियों में और उक्त शब्दों में 'नो' प्रत्यय का सद्भाव होने पर अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति नहीं होती ; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि यदि उक्त विभक्तियों में 'नो' प्रत्यय का सदभाव नहीं होकर अन्य प्रत्ययों का सद्भाव होगा। ऐसी दशा में इकारान्त और उकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति हो जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अग्नयः=अग्गी; अग्नीन्; = अग्गी; अग्नेः = अग्गीओ वायवः = वाऊ; वायून = वाऊ; वायोः=वाऊओ; आदि ।
'अग्गिणो' 'वाउणो' और 'अग्गी, रूपों की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - २० में की गई हैं।
अग्नेः संस्कृत पञ्चमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गिओ होता है। इसमें
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