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________________ 144 : प्राकृत व्याकरण बुद्धयाः संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप बुद्धीओ बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द बुद्धि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के आगे पंचमी विभक्ति के एकवचनान्त प्रत्ययों का सद्भावों होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-८ से और ३-१२४ के निर्देश से पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि-अस्=अस्-आस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ओ, उ, हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से प्राकृत रूप बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धीहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं। 'धेणूओ', धेणूउ, धेणूहिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२९ में की गई है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। मालाभ्यः संस्कृत पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप मालाहिन्तो, मालासुन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय भ्यस् के स्थान पर प्राकृत में क्रम से हिन्तो, सुन्तो प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप मालाहिन्तो, मालासुन्तो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। गिरिभ्यः संस्कृत पंचमी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१६ से मूल रूप गिरि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाता है। "गिरिस्स' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है। गुरोः संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुस्स रूप सिद्ध हो जाता है। दघ्नः संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत रूप दधि में स्थित ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१० से और ३-१२४ के निर्देश से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङ =अस' के स्थान पर प्राप्त प्राकृत रूप दहि में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिस्स रूप सिद्ध हो जाता है। मुखस्य संस्कृत षष्ठी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' प्राप्ति, तत्पश्चात् ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है। गिरा संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से मूल प्राकृत रूप गिरि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्त होकर प्राकृत रूप गिरिम्मि सिद्ध हो जाता है। गुरौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से उपर्युक्त गिरिम्मि रूप के समान ही 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। दनि अथवा दधनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द दधि में स्थित 'ध्' व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत में 'ह' व्यञ्जन की प्राप्तिः और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त प्राकृत रूप दहि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दहिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। मधुनि संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप महुम्मि होता है। इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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