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210 प्राकृत व्याकरण
प्रथम और तृतीय रूपों में ' इत्था' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर सूत्र - संख्या १ - १० से अंग रूप 'गच्छि और गच्छिहि' में स्थित अन्त्य 'इ' के आगे प्राप्त ' इत्था' प्रत्यय में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप हो जाता है।
गमिष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छिमि, गच्छिहिमि, गच्छिस्सामि, गच्छिहामि, गच्छिस्सं और गच्छं होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३ - १७१ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३ - १५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत शब्द 'गच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३ - १६६ और ३- १६७ से द्वितीय रूप; तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त ि से प्राप्तांग 'गच्छि' में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि, स्सा, और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३ - १७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि, स्सा, अथवा हा' का लोप और ३- १४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग गच्छि, गच्छिहि, गच्छिस्सा और गच्छिहां में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप गच्छिमि, गच्छिहिमि, गच्छिस्सामि और गच्छिहामि सिद्ध हो जाते हैं।
गच्छस्सं में मूल प्राकृत- अंग 'गच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त चार रूपों में वर्णित विधि-विधानानुसार जानना चाहिये। तत्पश्चात् प्राप्तांग 'गच्छि' में सूत्र - संख्या ३ - १६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में केवल 'स्सं' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर शेष सभी एतदर्थक प्रत्ययों का अभाव होकर पंचम रूप गच्छिस्सं सिद्ध हो जाता है।
छट्ठे रूप 'गच्छं' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ - १७१ में की गई है।
गमिष्यामः संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप यहां पर केवल छह ही दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- १ गच्छिमो, २ गच्छिहिमो, ३ गच्छिस्सामो, ४ गच्छिहामो, ५ गच्छिहिस्सा और ६ गच्छिहित्था । इनमें प्राकृत रूपांग 'गच्छि' की प्राप्ति इसी सूत्र में उपर्युक्त तृतीय- पुरुष के एकवचन
अर्थ में वर्णित सूत्र - संख्या ३ - १७१ तथा ३ - १५७ से जान लेना चाहिये; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'गच्छि' में सूत्र - संख्या ३--१६६ और ३- १६७ से 'हि स्सा और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३- १७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि अथवा स्सा अथवा हा' का लोप; और ३- १४४ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग 'गच्छि, गच्छिहि, गच्छिस्सा और गच्छिहा' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप 'गच्छिमो, गच्छिहिमो, गच्छिस्सामो और गच्छिहामो' सिद्ध हो जाते हैं।
गच्छिहिस्सा और गच्छिहित्था में मूल अङ्ग 'गच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधानों के अनुसार ही होकर सूत्र - संख्या ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में केवल क्रम से 'हिस्सा तथा हित्था' प्रत्ययों की ही प्राप्ति होकर एवं शेष सभी प्रत्ययों का अभाव होकर क्रम से पाँचवाँ तथा छट्टा रूप 'गच्छिहिस्सा और गच्छिहित्था ' भी सिद्ध हो जाते हैं । । ३ - १७२ ।।
दुसुमु विध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् ।।३ - १७३ ।।
विध्यादिष्वर्थेषूत्पन्नानामेकेत्वेर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दु सु मु इत्येते आदेशा भवन्ति ।। हसउ सा । हससु तुमं । हसामु अहं । । पेच्छउ । पेच्छसु। पेच्छामु । दकारोच्चारणं भाषान्तरार्थम्॥
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त आज्ञार्थक विधिअर्थक और आशीषर्थक-भाव के बोधक पृथक्-पृथक् प्रत्यय पाये जाते हैं; परन्तु प्राकृत भाषा में उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के प्रत्यय एक जैसे ही होते हैं; तदनुसार प्राकृत भाषा: उक्त-लकारों के ज्ञानार्थ प्राप्त प्रत्ययों का विधान इस सूत्र में किया गया है। प्राकृत भाषा के व्याकरण की रचना करने वाले विद्वान् महानुभाव उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में अलग-अलग रूप से प्राप्तव्य प्रत्ययों का विधान नहीं करके एक प्रकार के प्रत्ययों का विधान कर देते हैं; ऐसी परिस्थिति में वाचक अथवा पाठक की बुद्धि का ही यह कर्तव्य रहा जाता
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