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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 211 है कि वह समयानुसार तथा सम्बन्धानुसार विचार करके यह निर्णय करले कि-यहां पर क्रियापद में प्रदत्त लकार आज्ञार्थक है अथवा विधिअर्थक है अथवा आशीषर्थक है। इस सूत्र में उपर्युक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य एकवचन-बोधक प्रत्ययों का क्रम से विधान किया गया है; जो कि इस प्रकार है:
प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में दु-उ' की प्राप्ति होती है।
द्वितीय पुरुष के एकवचन में सद्भाव में 'सु' प्रत्यय आता है और तृतीय पुरुष के एकवचन के अस्तित्व में 'मु' प्रत्यय की संयोजना की जाती है। यों तीनों प्रकार के पुरुषों के एकवचन के अर्थ में उपर्युक्त तीनों लकारों में से किसी भी लकार के प्रकटीकरण में क्रमशः :उ, सु, मु' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- प्रथमपुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- सा हसतु अथवा सा हसेत् अथवा सा हस्यात-हसउ सा-वह हँसे। द्वितीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः- त्वम् हस अथवा त्वम् हसतात्ः त्वम् हसे; त्वम् हस्याः-तुमं हससु-तू हँसा तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तःअहम् हसानि; अहम् हसेयम्; अहम् हस्यासम् अहं हसामु=मैं हंतूं। उपर्युक्त लकारों के विधि-विधान की संपुष्टि के लिये दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- प्रथमपुरुष के एकवचन का दृष्टांत (स) पश्यतु; (स) पश्येत्; (स) दृश्यात्- (स) पेच्छउ-वह देखे। अथवा वह दर्शनीय बने। द्वितीय-पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः-(त्वम्) पश्य अथवा (त्वम्) पश्यतात्; (त्वम्) पश्येः; (त्वम्) द्दश्याः - (तुम) पेच्छसु-तू देख अथवा तू दर्शनीय बन (अथवा, तू दर्शनीय हो); तृतीय पुरुष के एकवचन का दृष्टान्तः(अहम्) पश्यानि; (अहम्) पश्येम; (अहम्) दृश्यासम्=(अहम्) पेच्छामु-मैं देखू अथवा देखने योग्य बनें।
लोट्लकार का प्रयोग मुख्यतः 'आज्ञा, निमंत्रण, प्रार्थना, उपदेश और आशीर्वाद' आदि अर्थों में होता है। जबकि लिङ्लकार का उपयोग 'सम्भव, आज्ञा, निवेदन, प्रार्थना, इच्छा, आशीर्वाद, आशा तथा शक्ति' आदि अर्थों में हुआ करता है।
प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'उ' है; परन्तु सूत्र में 'उ' नहीं लिखकर 'दु' का उल्लेख करने का तात्पर्य केवल उच्चारण की सुविधा के लिये है। जैसा कि यही अर्थ सूत्र की वृत्ति में प्रदत्त भाषान्तरार्थम्' पद से अभिव्यक्त किया गया है।
हसतु, हसेत् और हस्यात् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषार्थक के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथमपुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसउ रूप सिद्ध हो जाता है।
'सा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
हस अथवा हसतात, हसेः और हस्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और अशीषार्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हससु होता है। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हससु रूप सिद्ध हो जाता है।
'तुम' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-९० में की गई है।
हसानि, हसेयम् और हस्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसामु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकत में प्राप्तांग 'हसा' के उक्त तीनों लकारों के अर्थ में ततीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'मु प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसामु रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१०५ में की गई है। Jain Education International
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