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________________ 212 : प्राकृत व्याकरण __ पश्यतु, पश्येत् और दृश्यात् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के प्रथमपुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत-धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से आदेश-प्राप्त प्राकृत धातु 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में प्रथमपुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छउ रूप सिद्ध हो जाता है। पश्य, पश्यतात्, पश्येः और दृश्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक लिङ् के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक रूप पेच्छसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से आदेश प्राप्त प्राकृत धात् 'पेच्छ' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छसु रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पश्यानि, पश्येयम् और दृश्यासम् संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के तृतीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप पेच्छामु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से मूल संस्कृत धातु 'दृश्' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५५ से आदेश प्राप्त धातु 'पेच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में प्राप्तांग 'पेच्छा' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'मु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छामु रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७३।। सोर्हिा ।। ३-१७४।। पूर्वसूत्रविहितस्य सोः स्थाने हिरादेशो वा भवति।। देहि। देसु।। अर्थः- आज्ञार्थक अर्थात् लोट-लकार के; विधिअर्थक अर्थात् लिङ्लकार के और आशीषर्थक लिङ्लकार के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है, उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। इस प्रकार से प्राकृत भाषा में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में दो प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'सु' और (२) 'हि'। मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है; किन्तु वैकल्पिक रूप से इस 'हि' प्रत्यय की भी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान पर आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- देहि, (=दत्तात्); दद्या और देयाः-देहि और देसु-तू दे; तू देने वाला हो और तू देने योग्य (दाता) हो। इस प्रकार से अन्य प्राकृत धातुओं में भी तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में सूत्र-संख्या ३-१७३ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के स्थान पर 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से की जा सकता है। देहि, दत्तात, दद्याः और देया संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक, और आशीषर्थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से दो रूप-'देहि और देसु' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३८ से मल प्राकत धात 'दा' में स्थित अन्त्य स्वर 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राकृत में प्राप्तांग 'दे' में क्रम से सूत्र-संख्या ३-१७४ से तथा ३-१७३ से उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में क्रम से 'हि' और 'सु' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर 'देहि' और 'देसु' रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-१७४।। अत इज्ज-स्विज्ज-हिज्जे-लको वा।। ३-१७५।। अकारात्परस्य सोः इज्जसु इज्जहि इज्जे इत्येते लुक् च आदेशा वा भवन्ति।। हसेज्जसु। हसेज्जहि। हसेज्जे। हस। पक्षे। हससु।। अत इति किम्। होसु।। ठाहि।। अर्थः- आज्ञार्थक, विध्यर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-१७३ में जिस 'सु' प्रत्यय का विधान किया गया है उस प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' के स्थान पर केवल अकारान्त धातुओं में ही वैकल्पिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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