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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 213 रूप से ‘इज्जसु अथवा इज्जहि अथवा इज्जे' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रकार से प्राकृत भाषा में क् कारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के सद्भाव में केवल अकारान्त धातुओं में चार प्रत्ययों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि इस प्रकार है:- (१) 'सु', (२) इज्जसु; (३) इज्जहि और (४) इज्जे । मुख्य प्रत्यय तो 'सु' ही है; किन्तु वैकल्पिक रूप से इन तीनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की कभी-कभी उक्त 'सु' प्रत्यय के स्थान पर आदेश प्राप्ति हो जाती है। कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि उपर्युक्त चारों प्रकार के प्रत्ययों में से किसी भी प्रकार के प्रत्यय की संयोजना नहीं होकर अर्थात् उक्त प्रत्ययों का सर्वथा लोप होकर केवल मूल प्राकृत धातु के ' अविकल - रूप' मात्र के प्रदर्शन से अथवा बोलने से उक्त लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में ' भावाभिव्यक्ति' अर्थात् वैसा अर्थ प्रकट हो जाता है। इस प्रकार से उक्त चार प्रकार के प्रत्ययों के अतिरिक्त ' प्रत्यय - लोप' वाला पांचवाँ रूप और जानना चाहिये। यह स्थिति केवल अकारान्त धातुओं के लिये ही जाननी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है:- (त्वम्) हस अथवा हसतात् (त्वम्) हसेः और (त्वम्) हस्याः = ( = (तुमं) हसेज्जसु, हसेज्जहि, हसेज्जे और हस | पक्षान्तर में 'हससु' भी होता है। इन सभी रूपों का यही हिन्दी अर्थ है कि- (तू) हँस; (तू) हँसे और (तू) हँसने वाला हो। प्रश्नः- केवल अकारान्त धातुओं के लिये ही उपर्युक्त चार प्रत्ययों का वैकल्पिक विधान क्यों किया गया है? अन्य स्वरान्त धातुओं में इन प्रत्ययों की संयोजना का विधान क्यों नहीं किया गया है ? उत्तरः- चूकि प्राकृत भाषा में अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में उक्त लकारों से सम्बन्धित द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ की अभिव्यक्ति में केवल दो प्रत्यय 'सु' और 'हि' की प्राप्ति ही पाई जाती है; इसलिये परम्परा में प्रतिकूल विधान करना अनुचित एवं अशुद्ध है; इसी दृष्टिकोण से केवल अकारान्त-धातुओं के लिये ही उपर्युक्त विधान सुनिश्चित किया गया है। अन्य स्वरान्त धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं: - (त्वम्) भव अथवा भवतात : (त्वम् ) भवेः और (त्वम्) भूया:= (तुम) होसु = तू हो अथवा तू होवे अथवा तू होने योग्य हो। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- (त्वम्) तिष्ठ अथवा तिष्ठतात्; (त्वम्) तिष्ठेः और (त्वम्) तिष्ठयाः- (तुम) ठाहि= तू ठहर; तू ठहरे और तू ठहरने योग्य हो । इन उदाहरणों में दी गई धातुएँ 'हो' और ठा' क्रम से ओकारान्त और आकारान्त हैं; इसलिये सूत्र - संख्या ३ - १७५ के विधि-विधान से अकारान्त नहीं होने के कारण से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में अकारान्त धातुओं में प्राप्तव्य प्रत्यय ‘इज्जसु, इज्जहि, इज्जे और लुक्' की प्राप्ति इनमें नहीं हो सकती है। इसलिये यह सिद्धांत निश्चित हुआ कि केवल आकारांत धातुओं में ही उक्त चार प्राप्तव्य प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं; अन्य स्वरान्त धातुओं में ये चार प्रत्यय नहीं जोड़े जा सकते है। हस अथवा हसतात् हसे: और हस्याः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से यहाँ पर पाँच रूप दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) हसेज्जसु, (२) हसेज्जहि, (३) हसेज्जे, (४) हस और (५) हससु । इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र - संख्या १ - १० से मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त प्रत्यय 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे' में आदि में 'इ' स्वर का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३ - १७५ से प्राकृत में प्राप्त हलन्तांग ‘हस्' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवन के सद्भाव में प्राकृत में क्रम से 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे' प्रत्ययों की प्राप्ति; १ - ५ हलन्त - अंग ' हस्' के साथ में उक्त प्रत्ययों की संधि होकर हसेज्जसु, हसेज्जहि और हसेज्जे रूप सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप 'हस' में मूल अकारान्त धातु 'हस' के साथ में सूत्र - संख्या ३- १७५ के उक्त प्रत्ययों का लोप होकर उल्लिखित कारों के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन में संदर्भ के 'हस' रूप सिद्ध हो जाता है। पाँचवे रूप 'हससु' की सिद्धि सूत्र - संख्या ३- १७३ में की गई है। भव अथवा भवतात्, भवेः और भूयाः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप होस के पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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