________________
214 : प्राकृत व्याकरण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१७३ से प्राकृत में आदेश-प्राप्त धातु-अङ्ग 'हो' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप होसु सिद्ध हो जाता है।
तिष्ठ अथवा तिष्ठतात, तिष्ठेः और तिष्ठयाः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप ठाहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत-धातु 'स्था-तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति
और ३-१७४ से प्राकृत में आदेश-प्राप्त धातु अङ्ग 'ठा' में उक्त तीनों लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के एकवचन के सद्भाव में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ठाहि' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७५।।
बहुषु न्तु ह मो ।। ३-१७६।। विध्यादिषूत्पन्नानां बहुष्वर्थेषु वर्तमानानां त्रयाणां त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं न्तु ह मो इत्येते आदेशा भवन्ति। न्तु। हसन्तु। हसन्तु हसेयुर्वा। ह। हसह। हसता हसेत वा। मो। हसामो। हसाम। हसेम वा।। एवं तुवरन्तु। तुवरह। तुवरामो॥
अर्थः- संस्कृत में प्राप्त आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक के प्रथम-द्वितीय और तृतीय पुरुष के द्वितवचन में तथा बहुवचन में जो प्रत्यय धातुओं में नियमानुसार संयोजित किये जाते हैं; उन प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में जिन-आदेश-प्राप्त प्रत्ययों की उपलब्धि है; उनका विधान इस सूत्र में किया गया है; तदनुसार प्राकृत धातुओं में उक्त लकारों के अर्थ में प्रथम-पुरुष के बहुवचन में 'न्तु प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; द्वितीय पुरुष के बहुवचन में 'ह' प्रत्यय का सद्भाव होता है और तृतीय पुरुष के बहुवचन में 'मो' प्रत्यय का आदेश भाव जानना चाहिये। यों तीनों लकारों के द्विवचन के तथा बहुवचन के प्रत्ययों के स्थान पर केवल एक-एक प्रत्यय की ही क्रम से 'न्तु, ह और मो' प्रथमपुरुष में द्वितीय-पुरुष में और तृतीय पुरुष में आदेश प्राप्ति जाननी चाहिये इनके क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:_ 'न्तु' प्रत्यय के उदाहरणः- हसन्तु; हसेयुः और हस्यासुः-हसन्तु-वे हँसे; वे हँसते रहें अथवा वे हँसने योग्य हों। द्वितीय पुरुष के बहुवचनार्थ-प्रत्यय 'ह' का उदाहरणः- हसत; हसेत और हस्यास्त-हसह आप हँसो; आप हँसे और आप हँसने योग्य हों। तृतीय पुरुष के बहुवचनार्थक प्रत्यय 'मो' का दृष्टान्तः- हसाम; हसेम और हस्यास्म-हसामो-हम हँसे; हम हँसते रहें और हम हँसने योग्य हों। संस्कृत में हस्' धातु परस्मैपदी है, तदनुसार उपर्युक्त उदाहरण परमैपदी-धातु का प्रदर्शित किया गया है; अब त्वर-जल्दी करना' धातु का उदाहरण दिया जाता है; यह धातु आत्मनेपदीय है। प्राकृत में परस्मैपदी और आत्मनेपदी जैसा धातु-भेद नहीं पाया जाता है; अतएव संस्कृत में जैसे परस्मैपदी-अर्थक प्रत्यय भिन्न होते हैं और आत्मनेपदी-अर्थक प्रत्यय भी भिन्न होते है; वैसी पृथक्ता प्राकृत में नहीं है। इसी तात्पर्य-विशेष का बोध कराने के लिये संस्कृत आत्मनेपदी धातु का उदाहरण ग्रंथकार वृत्ति में प्रदान कर रहे हैं। प्रथमपुरुष के बहुवचन का उदाहरण:- त्वरन्ताम्; त्वरेरन् और त्वरिषीरन्=तुवरन्तु-वे शीघ्रता करें; वे शीघ्रता करते रहें और वे शीघ्रता करने योग्य हों। द्वितीय पुरुष के बहुवचन का उदाहरणः- त्वरध्वम्; त्वरेध्वम् और त्वरिषीध्वम्-तुवरह-आप जल्दी करो; आप जल्दी करें और आप जल्दी करने वाले हों। तृतीय पुरुष के बहुवचन का उदाहरणः- त्वरामहै; त्वरेमहि और त्वरिषीमहि-तुवरामो हम शीघ्रता करें; हम शीघ्रता करते रहें और हम शीघ्रता करने वाले हों। इस प्रकार प्राकृत भाषा में आज्ञार्थक, विधि अर्थक और आशीषर्थक लकारों के बहुवचन में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरुष के अर्थ में क्रमशः समान रूप से 'न्तु, ह और मो' प्रत्यय का सद्भाव जानना चाहिये। प्राकृत में परस्मैपदी और आत्मनेपदी जैसे धातु-भेद का अभाव होने से प्रत्यय-भेद का भी अभाव ही होता है।
हसन्तु, हसेयुः और हस्यासुः संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक और आशीषर्थक प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदीय क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसन्तु
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org