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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 215 होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों प्रकार के लकारो के अर्थ में प्रथम-पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसन्तु रूप सिद्ध हो जाता है। ____ हसत, हसेत और हस्यास्त संस्कृत के क्रमशः आज्ञार्थक, विधिअर्थक, और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परम्मैपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसह' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस, में विकरण अन्त्य 'अ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हस' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में द्वितीय-पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'ह' की प्राप्ति होकर 'हसह' रूप सिद्ध हो जाता है। हसाम हसेम और हस्यास्म संस्कृत के क्रमशः उपर्युक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप हसामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त प्राकृत धातु 'हस' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राकृत में प्राप्तांग 'हसा' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के अर्थ में तृतीय पुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में केवल एक ही प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर हसामा रूप सिद्ध जाता है। त्वरन्ताम्, त्वरेरन और त्वरिषीरन् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों लकारों के प्रथमपुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरन्तु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' की आदेश प्राप्ति और ३-१७६ से उक्त तीनों लकारों के प्रथमपुरुष के बहुवचन के सद्भाव में प्राकृत में प्राप्तांग 'तुवर' में 'न्तु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरन्तु रूप सिद्ध हो जाता है। ... त्वरध्वम्, त्वरेध्वम् और त्वरिषीध्वम् संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरह होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत धातु त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर' की आदेश प्राप्ति और ३-१७६ से उक्त तीनों लकारों के द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तांग 'तुवर' में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरह रूप सिद्ध हो जाता है। त्वरामहे, त्वरेमहि और त्वरिषीमहि संस्कृत के क्रमशः उक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अकर्मक आत्मनेपदी क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से एक ही रूप तुवरामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१७० से मूल संस्कृत-धातु त्वर' के स्थान पर प्राकृत में 'तुवर की आदेश प्राप्ति; ३-१५५ से आदेश-प्राप्त धातु अङ्ग 'तुवर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे 'मो' प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति और ३-१७६ से प्राप्त प्राकृत अंग 'तुवरा' में उक्त तीनों प्रकार के लकारों के तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुवरामो रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१७६ ।। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा ॥३-१७७॥ वर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विध्यादिषु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतावादेशौ वा भवतः। पक्षे यथाप्राप्तम्।। वर्तमाना।। हसेज्ज। हसेज्जा। पढेज्ज। पढेज्जा। सुणेज्ज। सुणेज्जा।। पक्षे। हसइ। पढइ। सुणइ।। भविष्यन्ती। पढेज्ज। पढेज्जा पक्षे।। पढिहिइ।। विध्यादिषु। हसेज्ज। हसिज्जा। हसतु। हसेद्वा इत्यर्थः पक्षे। हसउ।। एवं सर्वत्र। यथा तृतीयत्रये। अइवाएज्जा। अइवायावेज्जा। न समणुजाणामि। न समणुजाणे-ज्जा वा। अन्येत्वन्यासामपीच्छन्ति। होज्जा भवति। भवेत्। भवतु। अभवत्। अभूत्। बभूव। भूयात्। भविता। भविष्यति। अभविष्यद्वेत्यर्थः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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