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224 : प्राकृत व्याकरण करने वाला होता, तो निश्चय ही तब तू राहु से पराभव को- (तिस्कार को) सहन करने वाला नहीं होता; क्योंकि राहु सिंह से जीता जाने वाला होने के कारण से (वह राहु अवश्यमेव सिंह से डर जाता)। __इस उदाहरण में 'निवेसन्तो, सहन्तो और जिअन्तस्स' पद अपूर्ण हेतु-हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप हैं। इनमें उक्त-अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'न्त' की प्राप्ति हुई है तथा विभक्तिबोधक-प्रत्यय 'डोओ' की और 'स्स' की सम्बन्धानुसार प्राप्ति होकर पदों का निर्माण हुआ है। इस तरह से यह सिद्धान्त प्रमाणित होता है कि उक्त-अर्थक क्रियातिपत्ति के पदों में विशेष्य के अनुसार अथवा सम्बन्ध के अनुसार विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। यों ये क्रियातिपत्ति अर्थक पद संज्ञा के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्ययों को धारण करने वाले हो जाते हैं।
अभविष्यत् संस्कृत के क्रियातिपत्ति प्रथमपुरुष के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत-रूप होन्तो और होमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू=भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' की आदेश प्राप्ति; ३-१८० से प्राप्तांग 'हो' में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राकृत में क्रम से 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति और ३-२ से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'होन्त तथा होमाण' में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुंल्लिग में संस्कृत प्राप तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ; प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप होन्तो और होमाणो' सिद्ध हो जाते हैं। ___ हरिण-स्थाने संस्कृत के सप्तमी-विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिण-टाणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था के स्थान पर 'ठा' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त 'ठ्' के स्थान पर द्वित्व 'ठ्ठ' की प्राप्ति; २-९० से द्वित्व-प्राप्त पूर्व'ठ के स्थान पर'ट् की प्राप्ति; १-२२८ से'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-११ से प्राकत में प्राप्तांग 'हरिण-टाण' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन के अर्थ में संस्कत-प्राप्तव्य प्रत्यय-ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'हरिणट्ठाणे' सिद्ध हो जाता है।
हरिणाङ्क संस्कृत के सम्बोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिणङ्क होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'णा में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयक्त वर्ण'' का सदभाव होने के कारण से हस्व स्वर'अ' की प्राप्ति और ३-३८ से सम्बोधन के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डो-ओ' की प्राप्ति का वेकल्पिक रूप से अभाव होकर 'हरिणङ्क' रूप सिद्ध हो जाता है।
'जई अव्यय की सिद्धि सत्र-संख्या १-४० में की गई है। 'सि' क्रियापद-रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-१४६ में की गई है।
हरिणाधिपम् संस्कृत के द्वितीया विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हरिणाहिवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की आदेश -प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-५ से प्राकृत में प्राप्त-शब्द 'हरिणाहिव' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन के के अर्थ में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत पद हरिणाहिवं सिद्ध हो जाता है।
न्यवेशयिष्यः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर निवेसन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से मूल संस्कृत धातु 'निवेशय्' में स्थित तालव्य ‘श के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स' की प्राप्ति; १-११ से संस्कृत धातु में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'य' का लोप; ३-१८० से प्राकृत में प्राप्तांग 'निवेस' में कियातिपत्ति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'निवेसन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'निवेसन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
असहिष्यथाः संस्कृत के क्रियातिपत्ति के अर्थ में द्वितीय पुरुष के एकवचन का आत्मनेपदी क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप सहन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से प्राकृत में प्राप्त हलन्त-धातु 'सह' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८० से प्राकृत में प्राप्तांग 'सह' में क्रियातिपत्ति के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग 'सहन्त' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद 'सहन्तो सिद्ध हो जाता है।
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