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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 225 "च्चिअ' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है।
'तदा' संस्कृत का अव्यय है। इसका प्राकृत-(अपभ्रंश) में 'तो' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-४१७ से मूल संस्कृत अव्यय 'तदा' के स्थान पर प्राकृत-(अपभ्रंश) में 'तो' सिद्ध हो जाता है।
राहु-परिभवं संस्कृत के द्वितीया विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप राहु-परिहवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ' वर्ण के स्थान पर 'ह' वर्ण की आदेश प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन के अर्थ में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व- वर्ण 'व' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद राहु-परिहवं सिद्ध हो जाता है। 'से' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-८१ में की गई है।
जेतुः (अथवा जयतः) संस्कृत के षष्ठी विभक्ति के एकचचन का (अथवा तः प्रत्ययांत अव्ययात्मक पद का) रूप है। इसका प्राकृत में क्रियातिपत्ति के अर्थ में षष्ठी-विभक्ति पूर्वक जिअन्तस्स रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से संस्कृत-विशेषणात्मक पद 'जित' में स्थित हलन्त 'त्' का लोप; ३-१८० से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तांग 'जिअ में 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१० से क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्तांग "जिअन्त' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर प्राकृत में स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिअन्तस्स' सिद्ध हो जाता है।।३-१५०॥
शत्रानशः ॥३-१८१॥ शतृ आनश् इत्येतयोः प्रत्येक 'न्त माण' इत्येतावादेशौ भवतः ।। शतृ। हसन्तो हस- माणो। आनश्। वेवन्तो वेवमाणो। __ अर्थः-कृदन्त चार प्रकार के होते हैं; जिनके नाम इस प्रकार है:- हेत्वर्थ कृदन्त, सम्बन्धभूतकृदन्त, कर्मणिभूतकृदन्त और वर्तमानकृदन्त; इनमें से तीन कृदन्तों के सम्बन्ध में पूर्व में दूसरे और तीसरे पादों में यथा स्थान पर वर्णन किया जा चुका है। चौथे वर्तमान-कृदन्त का वर्णन इसमें किया जाता है। वर्तमान-कृदन्त में प्राप्त सब रूप संज्ञा जैसे ही माने जाते हैं; इसलिये इनमें तीनों प्रकार के लिंगों का सद्भाव माना जाता है और संज्ञाओं के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्ययों की भी इनमें संयोजना की जाती है। संस्कृत में वर्तमान-कृदन्त के निर्माणार्थ धातु में सर्वप्रथम दो प्रकार के प्रत्यय लगाये जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) शतृ अत्=और (२) शानच-आन अथवा मान। ये प्रत्यय ऐसे अवसर पर होते हैं; जबकि दो क्रियाएं साथ-साथ में होती हों। जैसे:- तिष्ठन् खादति-वह बैठा हुआ खाता है। हसन् जल्पति-वह हँसता हुआ बोलता है। कम्पमानः गच्छति-वह कांपता हुआ जाता है। इत्यादि।
प्राकृत भाषा में वर्तमानकृदन्त भाव का निर्माण करना हो तो धातुओं में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'शतृ और आनश' में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त और माण' दोनों ही प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है। चूँकि संस्कृत-भाषा में तो धातुऐं मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं- परस्मैपदी और आत्मनेपदी; तदनुसार परस्मैपदी धातुओं के वर्तमान-कृदन्त के रूप बनाने के लिये केवल 'शतृ=अत्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और आत्मनेपदी धातुओं के वर्तमान कृदन्त के रूप बनाने के लिये 'शानच्=आन अथवा मान' प्रत्यय की प्राप्ति होती है परन्तु प्राकृत भाषा में धातुओं का ऐसा भेद परस्मैपदी अथवा
आत्मनेपदी जैसा नहीं पाया जाता है; इसलिये प्राकृत भाषा की धातुओं में वर्तमान कृदन्त के रूपों का निर्माण करने के लिये 'न्त और माणं' दोनों प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय की संयोजना की जा सकती है। इसीलिये कहा गया है कि संस्कृत प्राप्त वर्तमान कृदन्तीय प्रत्यय 'शतृ-अत् और शान-आन अथवा मान; में से प्रत्येक के स्थान पर 'न्त और माण' दोनों प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृतधातु में किसी भी एक प्रत्यय की संयोजना कर देने से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में उस धातु का रूप बन जाता है। तत्पश्चात् सर्वसामान्य संज्ञाओं के समान ही सम्बन्धित लिंग एवं वचन के अनुसार सभी विभक्तियों में उन वर्तमान कृदन्त-सूचक पदों में अधिकृत विभक्ति के एकवचन के रूप में हसन्) =हसन्त अथवा हसमाण; (प्रथमा विभक्ति के एकवचन के रूप में 'हसन्तो अथवा हसमाणो') हंसता हुआ। वेपमान; (प्रथमा
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