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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 223 अभविष्यत्, अभविष्यन्, अभविष्यः, अभविष्यत, अभविष्यम् और अभविष्याम संस्कृत के क्रियातिपत्ति-बोधक लुङ्लकार के तीनों पुरुषों के एकवचन के तथा बहुवचन के क्रमशः अकर्मक परस्मैपदी क्रियापद के रूप है। इन सभी रूपों का प्राकृत रूपान्तर समान रूप से 'होज्ज एवम् होज्जा' होता है। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत धातु 'भू=भव्' के स्थान पर 'हो' अंग की प्राप्ति और ३-१७९ से क्रियातिपत्ति के अर्थ में तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर समुच्चय रूप से प्राकृत में 'ज्ज तथा ज्जा' प्रत्ययों की क्रम से प्राप्ति होकर 'होज्ज तथा होज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। 'जई अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४० में की गई है। क्रियातिपत्ति-अर्थक होज्ज' क्रियापद के रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। वर्णनीयः संस्कृत के विशेषणात्मक अकारान्त पुंलिंग के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप वण्णणिज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से रेफ रूप 'र' व्यंजन का लोप, २-८९ से लोप हुए रेफ रूप '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व 'ण्ण' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त दीर्घ वर्ण 'णी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंजन का सद्भाव होने के कारण से ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४५ के सहयोग से तथा १-२ की प्ररेणा से विशेषणीय प्रत्ययात्मक वर्ण 'य' के स्थान पर 'ज' की आदेश प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त वर्ण 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से विशेषणात्मक स्थिति में प्राप्तांग प्राकृत शब्द 'वण्णणिज्ज' में पुल्लिंग अकारान्तात्मक होने से प्रथम विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृतपद 'वण्णणिज्जो' सिद्ध हो जाता है।।३-१७९।। न्त-माणौ। ३-१८०॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने न्तमाणो आदेशौ भवतः।। होन्तो। होमाणो। अभविष्यदित्यर्थः।। हरिण-टाणे हरिणङ्क जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो। न सहन्तो च्चिअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्य।। अर्थः-सूत्र-संख्या ३-१७९ में पूर्ण अर्थक क्रियातिपचि के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ज्ज तथा ज्जा' का उल्लेख किया जा चुका है; किन्तु यदि अपूर्ण हेतु-हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति का रूप बनाना होता इस अर्थ में धातु के प्राप्तांग में 'न्त तथा माण' प्रत्यय की संयोजना करने के पश्चात् उक्त अपूर्ण हेतु-हेतुमद्भूतकालिक क्रियातिपत्ति के अर्थ में प्राप्त रूप में अकारान्त संज्ञा पदों के समान ही विभक्तिबोधक प्रत्यय की संयोजना करना आवश्यक हो जाता है; तद्नुसार वह प्राप्त क्रियातिपत्ति का रूप जिस विशेष्य के साथ में सम्बन्धित होता है; उस विशेष्य के लिंगवचन और विभक्ति अनुसार ही इस क्रियातिपत्ति अर्थक पद में भी लिंग की, वचन की और विभक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ये अपूर्ण हेतु-हेतुमद् भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप विशेषणात्मक स्थिति को प्राप्त करते हुए क्रियार्थक संज्ञा जैसे पद वाले हो जाते हैं; इसलिये इनमें इनसे सम्बन्धित विशेष्यपदों के अनुसार ही लिंग की, वचन की और विभक्ति प्रत्ययों की प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर प्राकृत रूपों के साथ में सहायक क्रिया 'अस्' के रूपों का सद्भाव वैकल्पिक रूप से होता है। जैसेः- अभविष्यत्-होन्तो अथवा होमाणो होता (हुआ) होता। इस उदाहरण में अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूतकालिक क्रियातिपत्ति रूप से प्राप्त रूप होन्त तथा होमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्रत्यय 'डो ओ'की प्राप्ति बतलाई हई है। यों प्राप्त विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति अन्य अपूर्ण हेतु-हेतुमद्भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूपों के लिये भी समझ लेनी चाहिये। ग्रन्थकार ग्रंथान्तर से उक्त तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिये निम्न प्रकार से वृत्ति में गाथा को उद्धृत करते हैं:गाथा:- हरिण ट्ठाणे हरिणङ्क! जइसि हरिणाहिवं निवेसन्तो।। न सहन्तो च्चिअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स।। संस्कृत :- हरिण-स्थाने हरिणाङ्क ! यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्यः।। नासहिष्यथा एव तदा राहु परिभवं अस्य जेतुः।। (अथवा जयतः।।) अर्थः-अरे हरिण को गोद में धारण करने वाला चन्द्रमा! यदि तू हरिण के स्थान पर हरिणाधिपति-सिंह को धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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